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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥६५॥ या | मण्डित कल्प वृक्षोंकर पूर्ण है उसके तले तीस योजन प्रमाण लंका नामा नगरी है, रत्न और सुवर्ण के महलोंकर अत्यन्त शोभे है जहां मनोहर उद्यान में कमलों से मण्डित सरोवर हैं बड़े २ चैत्यालय हैं वह नगरी इन्द्रपुरी समानहै दक्षिण दिशाका मण्डन (भूषण) है, हे विद्याधर! तुम समस्त बांधव वर्ग कर सहित वहां बसकर सुखसे रहो ऐसा कहकर भीम नामा राक्षसोंका इन्द्र उसको रत्नमई हार देताभया वह हार अपनी किरणों से महा उद्योत करे है तथा घरती के बीचमें पाताल लंका जिसमें अलंकारोदय नगर छैयोजन डूंघा और एकसौ साढे इकतीस योजन और डेढकला चौड़ा यहभी दीया उसनगर में वैरियों का मन भी प्रवेश न करसके स्वर्गसमान महा मनोहर है राक्षसों के इन्द्र ने कहा कदाचित् तुझे परचक्र का भय हो तो इस पाताललंका में सकल वंश सहित सुख सो रहिये, लंका तो राजधानी और पाताललंका भय निवारणका स्थानक है, इस भान्ति भीम सुभीमने पूर्णघन के पुत्र मेघवाहन को कहा, तब मेघवाहन परम हर्ष को प्राप्त भया, भगवान् को नमस्कार कर के उठा, तब राक्षसों के इन्द्र ने राक्षस विद्यादी सो आकाशमार्ग से विमान में चढकर लंकाको चले, तव सर्व भाइयों ने सुना कि मेघवाहन को राक्षसों के इन्द्रने अति प्रसन्न हो कर लंका दी है सो समस्तही बन्धु वर्गों के मन प्रफुल्लित भए जैसे सूर्य के उदय से समस्तही कमल प्रफुल्लित होंय तेसे सर्वही विद्याघर मेघवाहन पे आए, उन से मण्डित मेघवाहन चले के एकतो राजाके आगे जाय हैं कैएक पीछे के एक दाहिने के एक बांये केएक हाथियों पर चढ़े के एक तुरंग (घोड़े) पर क्या एक रथों पर चढे जाय हैं के एक पालकी पर चढ़े। जाय हैं और अनेक पियादेही जाय हे, जय जय-सन्दा होरहा है दुन्दुभी बाजे बाजे हैं राजा पर छत्र For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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