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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरास ॥७२॥ पन | सुलक्षणा महा भागवती सखियों के वचन से लक्षमण के समीप तिष्ठी वह नव यौवन जिसके मृगी। कैसे नेत्र, पूर्णमासी के चन्द्रमा समान मुख जिस का और महा अनुराग की भरी उदार मन पृथिवी विषे सुख से सूते जो लक्ष्मण तिन को एकान्त में स्पर्श कर और अपने सुकुमार कर कमल सुन्दर तिन से पतिके पांव पलोटने लगी और मलयागिरि चन्दन से पतिका सर्व अंग लिप्त किया और इसकी लार हजार कन्या आईं थीं तिन ने इसके करसे चन्दन लेय विद्याघरों के शरीर छोटे सो सब घायल पाछे भए 'और इन्द्रजीत कुम्भकर्ण मेघनाद घायल भए थे सो उनकोभी चन्दनके लेप से नीके किये सो परमानन्द को प्राप्त भए जैसे कर्म रोग रहित सिद्धपरमेष्ठी परम आनन्द को पावें और भी जे योधा घायल भए थे। हाथीघोड़े पियादे सो सब नीके भए घावोंको शल्यजाती रही सब कटक अच्छा भया और लक्ष्मण जैसे सूता जागे तैसे जागे बीण के नाद सुन अति प्रसन्नभए और लक्ष्मण मोहशय्या छोडतेभए स्वांस लिए अांख उघड़ी उठ कर क्रोध के भरे दशों दिशा निरख ऐसे वचन कहते भए कहां गया रावण कहाँ गया वो रावण ये वचन सुन राम अति हर्षित भए फूल गए हैं नेत्र कमल जिन के महा आनन्द के भरे || बड़े भाई रोमांच भया है शरीर में जिन के और अपनी भुजावों से भाई से मिलते भए और कहते भए हे। भाई वह पापी तुझे शक्ति से अचेत कर अापको कृतार्थ मान घरगया और इस राजकन्या के प्रसाद से त नाका भया और जाम्वन्तको आदिदेय सबविद्याधरों ने शक्तिके लागवे आदिनिकसवे पर्यन्त सर्व बृतान्त कहा औ लक्ष्मण ने विशिल्या अनुरोग को दृष्टि कर देखी कैसी है विशिल्या श्वेतश्याम पारक्त तीन वण कमल तिन समान हैं नेत्र जिस के और शरद की पुण्योंके चन्द्रमा समान है मुख जिस का और कोमल For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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