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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्प : परस्यु छ करेल भए व कार बमबाण खडा लोहयष्टि वन मुदगर कनक परिघ इत्यादि अनके । श्रायुधोंसे परस्पर युद्धभया घोड़ेके असवार घोडेके असवारोंसे लड़ने लगे हाथियों के असवार हाथियों के असवारोंसे रथोंके रथीयोंसे महाधीर लड़ने लगे सिंहों के असवार सिंहोंके असवारोंसे पयादे पयादों से भिडतेभए बहुत वेरमें कपिधजोंकी सेना राक्षसोंके योधावोंसे दवी तब नल नील संग्राम करने लगे सो इनके युद्धसे राक्षसों की सेना चिगी तब लंकेश्वरके योधा समुद्रकी कल्लोल सारिखे चंचल अपनी सेनाको कपायमान देख विद्युद्रचन मारीच चन्द्रार्क सुखसारण कृतांत मृत्यु भूतनाद संक्रोधन इत्यादि महा सामन्त अपनी सेना को धीर्य बंधायकर कपिध्वजों की सेनाको दबावतेभए तब मर्कटबंशी योघा अपनी सेनाको चिगी जान हजारां युद्धको उठे, सो उठतेही नाना प्रकार के श्रायुधों से राक्षसों की सेनाको हणते भए अति उदार है चेष्टा जिनकी तब रावण अपनी सेना रूप समुद्र को कपिध्वज रूप प्रलय काल की अग्निसे सूकता देख आप कोप कर युद्ध करनेको उद्यमी भया सो रावणरूप प्रलय कालकी पवनसे बानर बंशी सूके पात उड़ने लगे तब विभीषण महायोधा बानर बंशियों को धीर्य बंधाय तिनकी रक्षा कवे को श्राप रावणसे युद्धको सन्मुख भया तब रावण लहुरे भाईको युद्ध में उद्यमी देख क्रोधकर निरादर बचन कहता भरा रे बालक तू लघु भाता है सो मारबे योग्य नहीं मेरे सन्मुख से दूर हो मैं तुझे देखे प्रसन्न नहीं तब विभीषण ने रावणसे कही कालके योग से तू मेरी दृष्टि पड़ा तब मौपे कहां जायगा तब रावण अतिक्रोध से कहता भया रेपुरुषत्वरहित क्लिष्ट धृष्ट | पापिष्ट कुचेष्टि नरकाधिकार तोको तो सारिखे दीनको मारे मुझे हर्ष नहीं तु निर्बलरंक अवध्य हैं For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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