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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चुराख 199३ पुण्य के उदय से गरुडेंद्र ने बर दिया था सोचितार लक्षमणसे राम कहते भए हे भाई वशंस्थल गिरि | पर देशभूषण कुलभूषण मुनिका उपसर्ग निवारा उससमय गरुडेंद्रने वर दियाथा ऐसा कह महा लोचन रामने गरुडेंद्र को चितारा सो सुख अवस्था में तिष्ठेथा सो सिंहासन कंपायमान भया तब अवधि कर राम लक्षमण को काम जान चिंता वेग नामा देव को दोय विद्या देय पठाया सो प्राय कर बहुत श्रादरसे रामलक्षमणसे मिला और दोनों विद्या तिनको दई, श्रीराम को सिंहवाहिनी विद्यादई और लक्षमणको गरुडवाहिनी विद्या ई तब यह दोनों धीर विद्यालेय चिन्तावेगको बहुत सन्मान कर जिनेन्द्रिकी पूजा करतेभए और गरुंडेंद्रकी बहुत प्रशंसाकरी वह देव इनको जलबाण अग्नि बाण पवनबाण इत्यादि अनेक दिव्य शस्त्र देताभया और चांद सूर्य सारिखे दोनों भाइयों को छत्र दिए और चमर दिए नानाप्रकारके रत्न दिए कांतिके समूह और विद्युद्धक नाम गदालक्षमणको दई और हल मूसल दुष्टोंको भयके कारण रामको दिये इसभांति वह देव इनको देवोपुनीत शस्त्र देय और सैकड़ों अाशिष देय अपने स्थानकगया, यह सर्व धर्मका फल जानो जो समयमें योग्य बस्तुकी प्राप्तिहोय विधि पूर्वक निर्दोष धर्म अाराधाहोय उसके ये अनुपम फलहैं जिनके पायके दुःखकी निवृत्ति होय महा कार्यके धनी आप कुशलरूप और औरोंको कुशलकरें मनुष्यलोककी सम्पदाकी क्याबात पुण्या धिकारियों को देवलोक की वस्तुभी सुलभ होयहै इसलिये निरन्तर पुण्यकरो अहो प्रामि हो जो मुख चाटे तो सर्व प्राणियों को सुख देवो जिस धर्मके प्रसादसे सूर्य समान तेजके धारक होवो और | आश्चर्यकारी वस्तुओं का संयोग होय ॥ इति श्री साठवां पर्व संपूर्णम् । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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