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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म ५७।। क्यों किया, भगवान् संजयति स्वामी ने कहा कि में चतुर्गति विषे भ्रमण करता सकट नामा ग्राम में दयावान् पुराण प्रियवादी हितकार नामा महाजन भया, निष्कपट स्वभाव साधू सेवा में तत्पर सो समाधि मरण कर कुमुदावती नगरी में न्यायमार्गी श्रीवर्धन नामा राजा हुवा, उस ग्राम में एक ब्रह्मण जो अज्ञानतपकर कुदेव हुआ था वहां से चय कर राजा श्रीवर्धन के वह्निशिख नामा पुरोहित भया, वह महा दुष्ट कार्य का कर वाला आप को सत्यघोष कहावे परन्तु महा झूठा और परद्रव्य का हरणहारा, उसके कुकर्म को कोई न जाने, जगत् में सत्यवादी कहावे, एक नेमिदत्त सेठ के रत्न हरे, राणी रामदत्ता ने जूवा में पुरोहित की अंगूठी जीत और दासी के हाथ पुरोहित के घर भेजकर रत्न मंगाए और सेठ को दीए, राजा ने पुरोहित को ती दण्ड दीया, वह पुरोहित मर कर एक भवकेपश्चात यह विद्याधरों का अधिपति भया और राजा मुनित धार कर देवभए, कईएक भवकेपश्चात यह हम संजयंति भए सो इसने पूर्व भव के प्रसंग से हम को उपसर्ग किया यह कथा सुन नागेन्द्र अपने स्थान को गए ॥ अथानन्तर उस विद्याधर के दृढ़रथ भए उसके अश्वघरमा पुत्र भए उसके अश्वाय उसके अश्वध्वज उसके पद्मनाभ उसके पद्ममाली उसके पद्मरथ उसके सिंहजाति उसके मृगधर्मा उस के मेघास्त्र उस के सिंह उसके सिंहकेतु उसके शशांक उस के चन्द्राहूं उस के चन्द्रशेखर उसके इन्द्ररथ उसके चक्रधर्मा उसके चक्रायुष । उसके चक्रध्वज उसके मणिग्रीव उसके मयंक उसके मणिभासुर उसके मणिरथ उसके न्यास उसके विस्वष्ट उसके लंबिताकर उसके रक्तोष्ठ उसके हरिचन्द्र उसकेपूर्णचन्द्र उसके वालेन्द्र उसके चला उसके यह उसके उसके के For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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