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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir ७६४१॥ । पुराण फिर श्रीरामके और उसके युद्धभया सो रामको देख वैतालीविद्या भागगई तब वह साहसगति सुग्रीव के रूपसे रहित जैसाथा सो होयगया महायुद्ध में रामने उसे मारा सुग्रीव का दुःख दूर किया यह बात सुन हनूमानका क्रोष दूरभया मुख कमल फूल हषित होय कहते भये अहो श्रीरामने हमारा बड़ा उपकार किया सुग्रीवका कुल अकीर्तिरूप सागरमें डूबे था सो शीघही उधारा सुवर्णके कलश समान सुग्रीव का गोत्र सो अपयशरूप ऊंटे कूप में डूबता था श्रीराम सन्मतिके घारकने गुणरूप हस्तकर काढ़ा इसभांति हनूमान ने बहुत प्रशंसाकरी और सुख के सागर में मग्नभए और हनूमानकी दूंजी स्री सुग्रीवकी पुत्री पद्मरागा पिताके शोकका अभाव सुन हर्षित भई उसके बड़ा उत्साह भयो दान पूजा आदि अनेक शुभ कार्य किए हनूमानके घरमें अनंगकुसमाके घर खरदूषणका शोकभया और पद्मरागा के सुग्रीव का हर्ष भया इसभांति विषमताको प्राप्त भए घरके लोग तिनको समाधान कर हनूमान किहकंधापुरको सन्मुख भए महा अधिकर युक्त बड़ी सेनासे हनुमान चला अाकाशमें अधिक शोभाभई महा रत्नमई हनूमान, विमान उसकी किरणों से सूर्यको प्रभामंद होय गई हनुमानको चालता सुन अनेक राजा लारभए जैसे इन्द्रकी लार बड़े बड़े, देव गमन करें आगे पीछे दाहिनी बांई ओर अनेक राजा चले जाय, विद्याघरों के शब्द से आकाश शब्दमई होय गया आकाशगामी अश्व और गज तिनके समूहों से आकाश चित्रामरूप होयगया महा तुरंगोंसे संयुक्त ध्वजावों कर शोभितसुन्दर रथ उमसे अाकाश शोभायमान. भासताभया और उज्ज्वल छत्रों के समूह कर शोभित अाकाश ऐसा भासे मानों कुमदोंकाहीवन है और गम्भीर दुन्दुभी शब्द उनकर दीदिशा ध्वनिरूप होयगई मानो मेघ गाजे है और अनेक वर्ण के श्राभूषण, । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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