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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पन्न पुराण सीता महासती है उसको दुष्ट निर्दई लंकापति रावण हर लेय गया सो रुदन करती विलाप करती ॥६३१॥ विमानमें बैठी मृगी समान व्याकुल में देखी वह बलवान् बलात्कार लिएजाता था सो मैंने क्रोधकर कही यह महासती मेरे स्वामी भामण्डल की बहिन है तू छोड़ दे सो उसने कोपकर मेरी विद्या छेदी वह महाप्रबल जिसने युद्ध में इन्द्र को जीता पकड लिया और कैलाश उटाया तीन खण्ड का स्वामी सागरांत पृथिवी जिसकी दासी जो देवों से भी न जीता जाय सोउसे मैं कैसे जीत उसने मुझे विद्यारहित किया यह सकल बृत्तांत रामदेव ने सुनकर उस को उरसे लगायो और बारम्बार उसे पूछते भए फिर राम पूछते भए हे विद्याधरो कहो लंका कितनी दूर है तब वे विद्याधर निश्चल होयरहे नीचा मुख किया मुख की छाया और ही होगई कछु जुवाब न दिया, तब रामने उनका अभिप्राय जामा कि यह हृदय में । रावणसे भयरूप हैं मन्ददृष्टि कर तिनकी ओर निहारे लब ये जानते भए हमको पाप कायर जाने । तब लज्जावान् होय हाथ जोड़ सिर निवाय कहते भए हे देव जिसके नाम सुने हमको भय उपजे हैं. । उसकी बात हम कैसेकहें कहां हमअल्प शक्ति के धनी औरकहां वह लंकाका ईश्वर इसलिये तुमयह हठछोडो अववस्तुगई जानो अथवा सुनो होतो हम सबबृत्तान्त- कहें सो नीके उरमें धारो, लवणसमुद्रके विषेराक्षस द्वीप प्रसिद्धहै अद्भुत सम्पदा का भरा सोसातसो योजन चौड़ा है और प्रदक्षिणाकर किञ्चित् अधिक इक्कीस सौ योजन उसकी परिधिहै उसके मध्यसुमेरु तुल्यत्रिकूटाचल पर्वतहै सो नवयोजनऊंचा पचास योजनके विस्तार नाना प्रकारके मणि और सुवर्ण कर-मण्डित आगे मेघवाहन को राक्षसों के इन्द्र ने दिया थो उस त्रिकुटाचल के शिखर पर लंका नाम नगरी शोभायमान रत्नमई जहां विमान समान घर For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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