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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir ॥६० पद्म के वचन कछ न सुने फिर मन्त्री आदि सन्मुख आए सर्व दिशा से सामन्त पाए राक्षसोंका पतिजो रावण सो अनेक लोकोंकर मण्डिताहोताभया लोक जयजयकार शब्द करतेभए मनोहर गीत नृत्य वादित्र होतेभये रावणने इन्द्र की न्याई लंकामें प्रवेश किया सीता चित्तमें चितवतीभई ऐसा राजा अमर्यादा की रीति करे तब पृथिवी कौनके शरण रहे जब रामचन्द्रकी कुशल क्षेम की वार्ता में न सुन तबलग खोन पानका मेरे त्याग है रावण देवारण्य नामा उपवन स्वर्गसमान परम सुन्दर जहां कल्पवृक्ष समान वृक्ष वहां सीताको मेलकर अपने मन्दिर गया उसही समय खरदूषण के मरण के समाचार आए सो महा शोककर रावणकी अठारा हजार राणी ऊंचे स्वरकर विलाप करतीभई और चन्द्रनखा रावणकी गोद में लोटकर अति रुदन करतीभई हाय में अभागिनी हतीगई मेरा धनी माग गया मेहके झरने समान रुदनकिया अश्रूपात का प्रवाह बही पति और पुत्र दोनोंके मरणके शोकरूप अग्नि कर दग्धायमानहै हृदय जिसका सो इसे विलाप करती देख इसका भाई रावण कहताभया हे वत्से रोयवेकर क्या इस जगत् के प्रसिद्ध चरित्रको क्या न जाने है विना काल कोई वजसे भी हता न मरे और जब मृत्युकाल भावे तब सहजही मरजाय कहां थे भामगोचरी राम और कहां तेरा भरतार विद्याधर दैत्यों का अधिपति खरदूषण ताहि वेमार यह कालही का कारण है अब जिसने तेस पति मारा ताको में मारूंगा इस भांति बहिनको घीर्य बंधाय कहताभया भक्त भगवानको अर्चनकर श्राविका के व्रत धार चन्द्रनखा को ऐसा कह कर रावणमहल में गया सर्पकी न्याइ निश्वास नाखता सेजपर पड़ा वहां पटराणी मन्दोदरी आय कर भर|| तारको व्याकुल देख कहतीभई हे नाथ खादषणके मरणकर अति ब्याकुलभएहो सो तुम्हारे सुभटकुल For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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