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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir पराव - पर वहां खरदूषण के मंदिर में विराजे सो महा मनोहर सुरमन्दिर समान वह मन्दिर वहां सीता बिना रश्चमात्र ison भी विश्राम को न पावते भए सीता में है मन राम का सो राम को प्रियाके समीप कर बन भी मनोग्य भासता था अब कांताके वियोगकर दग्ध जो राम तिनको नगर मन्दिर विन्ध्याचलके बनसमान भासें । अथानन्तर खरदूषण के मन्दिर में जिनमन्दिर देखकर रघुनाथने प्रवेश किया वहां अरिहंत की प्रतिमा देख रत्नमई पुष्पोंकर अर्चा करी क्षण एक सीता का संताप भूल गये जहां जहां भगवान् के चैत्यालय येवहां वहां दर्शन किया प्रशान्त भई है दुःख की लहर जिनके रामचन्द्र खरदूषण के महल में । तिष्ठे हैं और सुन्दर अपनी माता चन्दनखा सहित पिता और भाई के शोक कर महाशोक सहित लंका 1 गया। यहपरिग्रह विनाशीकहै और महादुःख का कारण है विघ्न कर युक्त है इसलिये हे भन्यजीव होतिन विषे इच्छा निवारो यद्यपि जीबोंके पूर्व कर्म के सम्बन्ध से परिग्रह की अभिलाषा होय है तथापि साधुवम के | उपदेश से यह तृष्णा निवृत्त होयहै जैसे सूर्य के उदयसे रात्रिनिवृत्त होयहै।। इति छयालीसवांपर्व संपूर्णम्॥ - अथानन्तर रावण सीता को लेय ऊंचे शिखरपर तिष्ठा धीरे धीरे चालता भया जैसे आकाश में सूर्य चले शोककर तमायमान जो सीता उसका मुख कमल कुमलाय मान देख रतिके राग कर मूद भयाहै मन जिसको ऐसा जो रावण सो सीता के चौगिर्द फिरे और दीनवचन कहे. हे देवी काम के वाणकर में हता जाऊंहूं सो तुझे मनुष्य की हत्या होयगी हे सुन्दरी यह तेरा मुखरूप कमल सर्वथा, कोप संयुक्त है तो भी मनोग्य से अधिक मनोग्य भासे है प्रसन्न होय एक वेर मेरी ओर दृष्टिघर देख तेरे नेत्रों की कांति रूप जल कर मोहि स्नान कराय और जो कृपा दृष्टि कर नहीं निहार तो For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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