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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म पुराण ॥६०२॥ पूछा यह शब्द काहेका है तब लक्षमणने कही हे नाथ यह चन्द्रोदय विद्याधरका पुत्र विराधित इसने स्गमें मेरा बहुत उपकार किया सो भापक निकट अायाहै इसकी सेनाका शब्दहै इस भांति दोनों बौरबार्च करे हैं और वह बड़ी सेनासहित हाथ जोड नमस्कारकर जयजय शब्द कहे अपने मंत्रियों सहित बिनती करताभया आप हमारे स्वामी हो हम सेवक हैं जो कार्य होय उसकी श्राज्ञा देवो तब लक्षमण कहता भया हे मित्र किसी दुराचारी ने मेरेप्रभुकी स्त्री हरी है इस बिना रामचन्द्र जोशोक के बशी होय कदाचत प्राणको तजें तो मैं भी अग्नि में प्रवेश करूंगा उनके प्राणों के अाधार मेरेप्राण हैं यह तू निश्चय जान इस लिये यह कार्य कर्तव्य है भले जान सो कर तब यह बात सुन बह अति दुखितहोय नीचा मुख कर रहा और मन में विचारता भया एते दिन मोहि स्थानक भूष्ट हुए भए नाना प्रकार बन बिहार किया और इन्होंने मेरा शत्रु हना स्थानक दिया इनकी यह दशा में जो २ विकल्प करूंहूं सो योंही वृथा जाय, यह समस्त जगत कर्माधीनहै तथापि मैं कछू उद्यम कर इनका कार्य सिद्ध करूं ऐसा विचार अपने मंत्रियों से कहा पुरुषोत्तम की स्त्री रत्न पृथिवीपर जहां होय तहां जल स्थल आकाशपूर चन गिरि ग्रामादिक में यत्नकर हेरो यह कार्यभए मन बांछित फल पापोगे ऐसी राजा विरापित की प्राज्ञा मुन यश के अर्थी सर्व दिशाको विद्याधर दौडे। __अथानन्तर एक रत्ननटी विद्याधर अर्कटी का पुत्र सो आकाश मार्ग में जाताथा उस ने सीता के रुदन की हाय राम हाय लक्षमणयहध्वनि समुद्र के ऊपर श्राकाश में सुनी तब रत्नजटी वहां आय देखे तो रावण के विमान में सांताबैठी बिलाप करे है तब सीताको विलाप करती देख रत्मजवी क्रोधका भग For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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