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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir पुरात १५९६॥ जैसे काधवन्त राजा शीघ्र ही प्रसन्न न किया जाय तैसे हठेवन्ती स्त्री भी वश न करी जाय जो कछ वस्तु ॥ है सो यत्नसे सिद्ध होयहै मनवांछित विद्या परलोककी क्रिया और मनभावना स्त्री ये यत्मसे सिद्ध होय यह विचारकर रावण सीता के प्रसन्न होने का समय हेरे कैसा है गवण मरण पाया है निकट जिसके ॥ अथानन्तर श्रीरामने वाणरूप जलकी धारा कर पूर्ण जोरणमण्डल उसमें प्रवेश किया सो लक्षमण | देख कर कहता भया हाय हाय एते दूर आप क्यों आए हे देव जानकी को अवली बन में मेल पाए । यह बन अनेक विग्रहका भरा है तब रामने कही में तेरा सिंहनाद सुन शीघ्राया तब लक्षमणने कहीं आप भली न करी अब शीघ्र जहां जानकी है वहां जावो तब रामनै जानी वीरतो महाधीर है इस शत्र का। भय नहीं इसको कही तू परम ऊत्साह रूप है बलवान बैरी को जीत ऐसा कह कर आप सीता की उपजी हैं शंका जिनको सो चञ्चलचित्त होय जानकीकी तरफचले क्षणमात्र में प्राय देखें तो जानकी नहीं तब प्रथम तो विचारी कदाचित् में सुरति भङ्गभया हूं फिर निर्धारणकर देखें तो सीतानहीं तब श्राप हाय सीता ऐसा कह मूळ खाय धरती पर पड़े, सो धरती रामके मिलाप से कैसी होती भई जैसे भरसारके मिलाप से। भार्या सोहै फिर सचेत होय वृक्षोंको और दृष्टिं घर प्रेमके भरे अत्यंत आकुल होय कहते भए हे देवी त , कहां गई क्यों न बोले हो बहुत हास्यकर क्या वृक्षोंके श्राश्रय बैठी होय तो शीघ ही आवो कोपकर क्या में तो शीघ्र ही तुम्हारे निकट आया हेप्रामावल्लभे यहतुम्हारा कोप हमें दुखका कारणहै इसभांति विलाप करते फिरे हैं सो एक नीची भूमिमें जटायु को कण्ठगति प्राण देखा तब आप पक्षी को देख अत्यन्त खेदखिन्न। | होय इसके समीप बैठे नमोकारमंत्र दियो और दर्शन ज्ञान चारित्र तप ये चार आराधना सुनाई अरिहंत । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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