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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir पुराण पा यह प्राणी धर्म के प्रभाव से सर्व पाप से छूटे हैं और ज्ञान का पावे हें , इत्यादिक धर्म का कथन देवाधि देवने किया सो सुन कर देव मनुष्य सर्व ही परम हर्ष को प्राप्त भए कैएक तो सम्यक्त को धारण करतेभए, कैएक सम्यक्त सहित श्रावक के व्रतको धारते भए, कैएक मुनिव्रत धारते भए, सुर असुर मनुष्य धर्म श्रवण कर अपने अपने धामगए, बगवान् नै जिन जिन देशों में गमन किया उन उन देशों में धर्म का उद्योत भया । आप जहां जहां विराजे तहां तहां सौ सौ योजन तक दुर्भिक्षादिक सर्व वाधा मिटी, प्रभु के चौरासी गणघर भए और चौरासी हज़ार साधुभए इनसे मण्डित सर्व उत्तम देशों में विहार किया ॥ ____अथानन्तर भरत चक्रवर्ती पद को प्राप्त भए और भरत के भाई सब ही मुनिव्रत धार परमपद को प्राप्त भए, भरतने कुछ काल छ पण्ड का राज किया, अयोध्या राजधानी, नवनिधि चौदह रत्न प्रत्येक की हज़ार हजार देव सेवा करें, तीन कोटि गाय एक कोटि हल चौरासी लाख हाथी इतने ही रथ अठारा कोटी घोडे और बत्तीस हज़ार मुकट बन्ध राजा और इतने ही देश महासम्पदाके भरे, छियानवे हज़ार रामी देवांगना समान, इत्यादिक चक्रवर्ति के विभवका कहां तक वरणन करिए । पोदनापुर में दूसरी माता का पुत्र बाहुवली था वह भरत कीअाज्ञा न मानतेभए, कहतेभए कि हम भी ऋषभदेवके पुत्र हैं किस की आज्ञा मानें, तवभरत वाहुबलि पर चढे, सेनायुद्ध न ठहरा, दोऊ भाई परस्पर युद्ध करें यह ठहरा, तब तीन युद्ध थापे ॥१॥ दृष्टियुद्ध ॥ २॥ जलयुद्ध ॥ ३॥ और मल्लयुद्ध, तीनों ही युद्धों में वाहुबली जीते और भरत हारे, तब भरत ने वाहुबली पर चक्र चलाया, वह उनके चरम शरीरपर घात नकर सका, || लौटकर भरत के होथ पर आया भरत लज्जितभए, वाहुबली सर्व भोग त्यागकर बैरागीभए, एक वर्ष पर्यंत । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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