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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir ॥५६३॥ से युक्त सुन्दर माला सुन्दर वस्त्र धरें मनवांछित दानके करणहारे महा यशसे मण्डित और सीता परम पुराक सौभाग्य की धरणहारी पापके प्रसंग से रहित शास्त्रोक्त रीतिकर रहे, उसकी महिमा कहांतक कहिए। और वंश गिरिपर श्रीरामचन्द्रने जिनेश्वर देवके हजारों अद्भुत चैत्यालय महादृढ़हें स्तम्भ जिनके योग्य है लम्बाई चौड़ाई ऊंचाई जिनकी और सुन्दर झरोखोंसे शोभित तोरण सहित हैं द्वार जिनके कोट और खाई कर मण्डित सुन्दर ध्वजावोंसे शोभित बन्दना के करणहारे भव्यजीव तिनके मनोहर शब्दसे संयुक्त मृदंग वीण वांसुरी झालरी झांझ मंजीरा शंख भेरी इत्यादि वादित्रों के शब्दकर शोभायमान निरन्तर आरम्भए हैं महा उत्सव जहां ऐसे रामके रचे रमणीक जिन मन्दिर तिनकी पंक्ति शोभतीभई वहां पंच वर्ण के प्रति बिंब जिनेन्द्र सर्व लक्षणोंकर संयुक्त सर्व लोकों से पूज्य विराजते भये एक दिन श्रीराम कमल लोचन लक्षमणसे कहतेभये हे भाई यहां अपने ताई दिन बहुत बीते और सुखसे इस गिरि पर रहे श्रीजिनेश्वरके चैत्यालय बनायवे कर पृथिवी में निर्मल कीर्ति भई और इस वंशस्थलपुर के राजा ने अपनी बहुत सेवा करी अपने मन बहुत प्रसन्न किए अब यहांहीरहें तो कार्यकी सिद्धि नहीं और इन भोगों कर मेरा मनप्रसन्न नहीं ये भोग रोगके समानहें ऐसाभी जानेंहूं तथापि ये भोगोंके समूह मुझे क्षणमात्र नहीं छोड़ें हैं सो जबतक संयम का उदय नहीं तब तक ये विना यत्न आय प्राप्त होय हैं इस भवमें जो कम यह प्राणी करे है उसका फल पर भव में भोगवे है और पूर्व उपार्जे जे कर्म तिनका फल वर्तमान काल विषे भोगे है इस स्थल में निवास करते अपने सुख संपदा है परन्तु जे दिन जाय हैं वे । फेर न पावें नदीका वेग और आय के दिन और यौवन गए वे फेर न पावें इसलिये करनारवा नाम For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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