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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५५५० मुन मुनि होय महीपर विहार करते भए सम्मेद शिखरकी यात्राको जाते थे किसी प्रकार मार्ग भूल वन में जाय पड़े वह वसूभूति विप्रका जीव महारौद्र भील भयाथा उसने देखे अति क्रोधायमान होय कुठार समान कुवचन बोल इनको खडे राखे और मारने को उद्यमीभया तब बडाभाई उदित मुदितसे कहताभया कि हे भात भय मतकरो क्षमा ढालको अंगीकार करो यह मारने को उद्यमी भयाहै सो हमने बहुत दिन. तपसे क्षमाका अभ्यास किया है सो अब दृढ़ता राखनी यह वचन सुन मुदित बोला हम जिनमार्ग के सरधानी हमको कहां भय, देह तो बिनेश्वर ही है और यह वसुभृति का जीव है जो पिता के वैर से माग था परस्पर दोनों मुनि ए बार्ताकर शरीर का ममत्वतज कायोत्सर्गधारतिष्ठे वह मारनेकोभाया सोम्लेछ कहिए भील तिन के पतिने मने किया दो मुनि बचाए यह कथा सुन रामने केवली से प्रश्न किया हे देव उसने बचाए सो उसको प्रीति का कारण क्या तब केवली की दिव्य ध्वनिमें प्राज्ञाभई एक यक्ष स्थान नामग्राम वहां सुरप और कर्षक दोनोभाई थे एक पक्षीको पारधीजीवता पकड़ उसे ग्राममें लाया सो इन दोनों भाईयोंने द्रब्य देय छुड़ाया सो पक्षी मरकर म्लेछ पति भया और वे सुरप कर्षक दोनों। वीर उदित मुदित भये परोपकार कर उसने इनको वचाएजो कोई जिस से नेकी करे है सोवह भी l उससे नेकी करे है और जो काहू से बुरी करे है उस से वह भी बुरी करे है यह संसारी जीवों की रीति है इस लिये सबों का उपकार ही करो किसी प्राणी से बैर न करना एक जीवदया ही मोक्ष । का मारग्र है, दया बिना ग्रन्थों के पढ़ने से क्या एक सुकृत ही मुख का कारण सो करना, वे उदित - मुदित मुभि उपसर्गसेछूट सम्मेद शिखर की यात्रा को गए और अन्य भी अनेक तीर्थों की यात्राकरी || For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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