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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org 18.0 जिनके कहूं इक मूगों के रंग समान महा सुंदर वृक्षों की कूपल लय श्रीराम के कमिण कर हैं कहूं। | यक वृक्षों में लग रही जो बेल उस कर हिंडोला बनाय दोन क्षोटा देय देय जानकी को झलावे हैं और आनन्द की कथा कर सीता को विनोद उपजावे हे कभी सीता राम से कहे है, हेदेव यह वृक्ष क्या मनोग्य दीखें हैं और सीता के सुगंधता कर भ्रमर प्राय लगे हैं, सो दोनोंउड़ाबे हैं इसभांतिनाना प्रकार के बन में धीरे धीरे विहार करते दोनों धीर मनोग्य है चारित्र जिनके जैसे स्वर्गके बन विषे देव रमें तैसे रमते भए,अनेकदेशोंको देखते अनुक्रमकर वंशस्थल नगर आए वे दोनों पुण्याधिकारी तिनको सीता के कारण थोड़ी दूर ही श्रावने में बहुत दिन लगे सो दीर्घकाल दुःख क्लेश का देनहारा न भयासदा सुख रूप ही रहे नगरके निकट एक बंशधर नामा पर्वत देखा मानो पृथिवी को भेद कर निकसाहै जहां बांसों के प्रति समूह तिनसे मार्ग विषम है ऊंचे शिखरों की छाया से मानों सदा संध्याको घारे है और निभरनों कर मानों इंसे है सो नगर से रोजा प्रजा को निकसते देख श्रीरामचन्द्र पूछते भए ब्रह्मे क्या भयकर नगर तजो हो तब कोई यह कहता भया श्राज तीसरा दिन है रात्रि के समय इस पहाड़ के शिखर पर ऐसी ध्वनि होय है जो अबतक कभी भी नहीं सुनी पृथिवी कंपायमान होय है और दशों दिशा शब्दायमान होय हैं वृक्षों की जड़ उपड़ जाय हे सरोवरोंका जल चलायमान होय है उस भयानक शब्द कर सर्व लोकों के कान पीडित होय हैं मानों लोहे के मुदगरों कर मारे कोई एक दुष्ट देव जगत् का कटक हमारे मारने के अर्थ उद्यमी होय है इस गिरि पर क्रीडा करे है उस के भयसे संध्या समय लोक ॥ भागे हैं प्रभातमें फिर आवे हैं पांच कोस परे जाय रहें हैं जहां उसकी निन सुनिये यह वार्ता सुन For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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