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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥५३४॥ के वचन सुन पृथिवीधर का पुत्र भी गर्जनाकर ऐसे ही कहताभया तब श्रीराम भौंहफेर उसे मनेकर लक्षमणसे कहते भए महाधीवीर है मन जिनका हे भाई जानकीने कहीं सो युक्त है यह अतिवीर्य बल कर उद्धत है रणसंग्राम में भरतके वशकरने का पात्र नहीं भरत इसके दसवें भाग भी नहीं यह दावानल समान इसका वह मतंग गज क्याकरे यह होथीयोंसे पूर्ण घोड़ों कर पूर्ण स्थपयादेयों से पूर्ण इस को जीतने समर्थ भरतनहीं जैसे केसरीसिंह महाप्रबल है परन्तु विन्ध्याचल पर्वत के ढाहिबे समर्थ नहीं। तैसे भरत इसको जीते नहीं, सेना का प्रलय होवेगो जहां निःकारण संग्राम होय वहां दोनों पक्षों के मनुष्यों का क्षयहोय और यदि इस दुरात्मा अतिवीर्य ने भरतको वशकिया तब रघुवंशयोंके कष्ट का क्या कहना और इनमें संधिभी सूझनहीं क्योंकिशत्रुघन अतिमानी बालक सोउद्धत वैरीसे दोषकियो यहन्यायमें उचित नहीं ॥ अन्धेरी रात्रिमें रौद्रभूत सहित शत्रुघनने दूरकेदौरा जाय अतिवीर्यके कटकमें धाड़ा। दिया अनेक योधा मारे बहुतहाथी घोड़ेकाम आए औरपवन सारिखे तेजस्वी हज़ारोंतुरंग और सातसे अंजनगिरि समानहाथी लेगया सोतने क्या लोगोंके मुखसे न सुनी यह समाचार अतिवीर्य सुन महा क्रोधको प्राप्तभया और अवमहा सावधानहे रणका अभिलाषी है और भरत महामानी है सो इस से युद्ध । छोड़ सन्धि न करे इसलिये तू अतिवीर्य को वशकर तेरीशक्ति सूर्य कोभी तिरस्कार करने समर्थ है और यहांसे भरतभी निकटहै सो हमको आपा न प्रकाशना जे मित्रको न जनावें और उपकार करें वे अद्भुत । पुरुष प्रशंसा करने योग्य हैं जैसे रात्रि का मेघ । इसभान्ति मंत्र कर रोम को अतिवीर्य के पकडने की बुद्धि उपजी रात्रि तो प्रमाद रहित होय समीचीन लोगों से कथाओं कर पूर्ण करी सुखसों । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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