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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥५३२० पा वचन कहने उचितनहीं वह भरतकी सेवाकर अक भरत उसकीसेवाकरेऔरभरत अयोध्याका भार मन्त्रीयोंको || सौंप पृथिवीके वशकरनेके निमित्त समुद्रक पारजाये भक और भांति जाय और तेरा स्वामी ऐसे गर्वके वचन कहे है सो गर्दभ माते हाथी की न्याई गाजे है अथवा उसकी मृत्यु निकटहै इसलिए ऐसे वचन कहे है | अथवा वायुके वश है राजा दशरथको बैराग्य के योग से तपोवन को गए जान वह दुष्ट ऐसीबात कहे | है सो यद्यपि तातकी क्रोध रूप अग्नि मुक्ति की अभिलाषाकर शान्त भई तथापि पिता की अग्नि से हम स्फुलिंग समान निकसे हैं सो अति वीर्य रूप काष्ठको भस्म करने समर्थ हैं हाथी के रुधिररूप कीच कर लाल भए हैं केश जिसके ऐसाजो सिंह सोशांत भया तो उसका बोलक हाथियों के निपात करने समर्थ है ये वचन कह शत्रघन वलता जो वांसों का बन उस समान तडतडात कर महा क्रोधायमान भया और सेवकों को आज्ञा करी कि इस दत का अपमान कर काढ़ देवो तब आज्ञा प्रमाण सेवकों ने अपराधी को स्वान को न्याई तिरस्कार कर काढदिया सो पुकारता नगरीके बोहिरगया धूलसे धूसराहै अंग नसका दरवचनोंसे दग्धाने धनी पैजाय पुकारा और राजाभात समुद्रसमानगम्भीर परमार्थका जानन हारा अपूर्व दुर्वचन सुन कछु एक कोपको प्राप्त भया भरत शत्रुघन दोनोभाई नगरसे सेना सहित शत्रुपर निकसे और मिथुला नगरीका धनी राजा जनक अपनेभाई कनक सहित बड़ी सेनासे आय भेलाभया और सिंहोदरको प्रादि दे अनेक राजा भरतसे आय मिले भरत बड़ीसेनासहित नन्द्यावर्तपुर के धनी अति बीर्यपर चढ़ा पिता समानप्रजाकी रक्षा करता संता कैसा है भरत न्यायमें प्रवीण है और राजा अतिवीय भी दूत केवच सुन परम कोषको प्राप्तभया क्षोभको प्राप्तभया जोसमुद्र उसके समान भयानक सर्व सामन्तों। मान For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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