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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पप वनमें प्रवरता तबही लोकांतिक देव आय स्तुति करते भए कि हे नाथ तुमने भली बिचारी त्रैलो क्यमें कल्याणका कारण यहही है, भरत क्षेत्रमें मोक्ष का मार्ग विछद्र भया था सो आपके प्रसादसे प्रवरतेगा, यह जीव तुम्हारे दिखाए मार्गसे लोक शिखर अर्थात् निर्वाणको प्राप्त होंगे, इ. भांति लोकांतिक देव स्तुति कर अपने घाम गए और इन्द्रादिक देव आयकर तप कल्याणका सम् यसाधते भये रत्न जड़ित सुदरशन नामा पालिकी में भगवानको चढ़ाया वह पालकी कल्प वृक्षके फूलों की मालासे महा सुगंधित है, और मोतीनके हारोंसे शोभायमान है, भगवान उसपर चढ़कर घर सेवनको चले, नाना प्रकारके वादित्रोंके शब्द और देवों के नृत्यसे दशों दिशा शब्द रूप भई इस प्रकार महा विभूति संयुक्त तिलकनामा उद्यानमें गए माता पितादिक सर्व कुटंबसे क्षमा भावकराकर और सिद्धों को नमस्कार कर मुनि पद अंगीकार किया, समस्त बस्त्र आभूषण तजे और केशोंका लौकिया वह केश इन्द्रने रत्नों के पिटारे में रखकर क्षीरसागर में डारे भगवान जब मुनिराज भए तब चौदह हजार राजा मुनिपद को न जानते हुवे केवल स्वामी की भक्तिके कारण नग्न रूप भए भगवान ने छः महीने पर्यंत निश्चल कायोत्सर्ग धरा अर्थात् सुमेरु पर्वत समान निश्चल होय तिष्ठे और मन और इन्द्रियों का निरोध किया कच्छ महा कच्छादिक राजा जो नग्न रूप धार दीक्षित भये थे वह सर्व ही क्षुधा तृषादि परीषह सहनेको समर्थ चलायमान भए, कैएक तो परीषह रूप पवनके मारे भूमि पर गिर पड़े कई एक जो महा बलवान थे वे भूमि पर तो न पड़े परन्तु बैठ गये, कैएक कार्यात्सर्ग को तज चूधा तृषा से पीड़ित फलादिक के आहार को गये, और कैएक गरमीसे तपतायमानाहाकर । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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