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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म पुरामा अभिलाषा का धारक महाक्षुद्र सज्जनतारहित है सो इसके ये दोष जब मिटेंगे कि कै तो यह मरण को प्राप्त होय अथवा इसेराज्य रहित करूं इसलिये तुम कद्दूमतकहो मेरा सेवक है जो चाहूंगा सो करूंगा तब #५०९ ॥ लक्ष्मण बोले बहुत उत्तरों कर क्या यह परमहितु है इस सेवक का अपराध क्षमा करो ऐसा जब कहा तब सिंहोदर क्रोध कर अपने बहुत सामन्तों को देख गर्व को धरतो हुवा उच्च स्वरों से कहता भया यह वज्रकर्ण तो महामानी है ही परन्तु इसकेकार्यको आया जो तू सोभी महामानी है तेरा तन और मन मानो पाषाण से निरमाया है चमात्र भी नम्रता तो मैं नहीं तू भरतका मूढसेवक है जानिये है जो भरत के देश में तोसारिखे मनुष्य होवेगे जैसे सीजती भरी हांडी में से एक चावल काट कर नर्म कठोर की परीक्षा कीजिए है तैसे एक तेरे देखनेसे सब की बानिगी जानी जाय है, तब लक्ष्मण क्रोध कर कहते भए मैं तेरी वांकी सूधी करावे को आया हूं तुझेनमस्कार करने को तो न आया, बहुत कहनेसे क्य थोड़े ही में समझजावो वज्र कर्ण से संधिकर ले नातर मारा जायगा ये वचन सुन सब ही सभा के लोक क्रोध को प्राप्त भए नाना प्रकार के दुर्बचन कहते भए और नाना प्रकार क्रोध की चेष्टाको प्राप्त भए के एक क्रूरी लेय के एक कटार भाला तलवार गहकर इस के मारने को उद्यमी भए हुंकार शब्द करते अनेक सामन्त लक्ष्मण को ऐसे बेढ़ते भए जैसे पर्वत को मदर रोकें तैसे रोकते भए, सा यह धीर वीर युद्ध क्रिया विषे पण्डित शीघ्र क्रिया के वेचा चरण के घात कर तिन को दूर उड़ा दिए कै एक गोडों से मारे के एक कहनियों से पछाड़े कैएक मुष्टिप्रहार कर चूर्ण कर डारे केएकों के केश पकड पृथिवी पर पाडिमारे कैयकों को परस्पर सिर भिडाय मारे, इस भांन्ति अकेले महावली लक्ष्मण For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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