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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म धारता भय, औरमहासुन्दर श्रापकके व्रतविषे तत्पर न्याय सहित राज्यकरताभया, भरतगुणोंकासमुद्र उसका ugcon प्रताप और अनुराग समस्त पृथिवी विषे विस्तरता भया, उसके देवांगना समान डेढ़ सौराणी तिन विषे आसक्त न भया, जल में कमलकी न्याई अलिप्त रहा, जिसके चितमें निरन्तरयह चिन्ता वरतेकि कवयति के व्रत धरूं तप करू मिर्पथ हुवा पृथिवी में विचरूं धन्य हैं वे पुरुष जे धीर सर्व परिग्रह का त्याग कर तप के बल कर समस्त कर्म को भस्मकर सारभुत जो निर्वाण का सुखउसे पाबेहैं, मैं पापी संसार में मग्न प्रत्यक्ष देखू हूं जो यह समस्त संसारका चरित्र क्षणभंगुर है जो प्रभात देखिये सो मध्यान्ह में नहीं मैं मह होय रहा हूं जे स्क विषयाभिलाषी संसार में राचे हैं वे खोटी मृत्यु मरेंगे सर्प व्याघ्र गज जल अग्नि शस्त्र विद्युत्पात शुलारोपण असाध्य रोग इत्यादि कुरीतिसे शरीर तजेंगे यह प्राणी अनेक सहस्रों दुख को भोगनहारा संसार मेंभ्रमण करे है चा पाश्चर्य है अस्प आयु में प्रमादीहोय रहा है जैसे कोई मदोन्मत्त क्षारसमुद्र के तट सूता तरंगों के समूह से नडरे तैसे में मोह कर उन्मत्त भव भ्रमण से नहीं हरुहूं निर्भय होय रहा हूं हाय हाय हिन्सा माम्भादि अनेक जे पाप सिन कर लिप्त में राज्य कर. कोन से घोर नरक में जाउंमा कैसा है नरक वाण पदम चक के श्राकार तीराय पत्र जिन में असे शाल्मली वृक्ष जर्झ हैं अथवा अनेक प्रकार निर्यञ्च गति जिस में जागा देखो जिन मात्र सारिखा। महाज्ञानरूप शास्त्र उस को पार कर भी मेस मन पाप युक्त हो रहा है निस्पृह होय कर यति का धर्म नहीं घारे है सो नजानिये कौन गति जाना है जैसी कर्मों की नासनहारी जो धर्मरूप चिन्ता उसको | निरन्तर माप्त हुआ जो राजा भरत सो जैन पुराणादि ग्रन्थों के श्रवण विषे आसक्त सदैव । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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