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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म पुराण argacil www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में भी हमसे घृणा न करी अब अत्यन्त निठुरता को घारोहो हमारा अपराध क्या तुम्हारे चरण रजकर परमवृद्धि को प्रम भए तुम तो भृत्यवत्सल हो हो माता जानकी अहो लक्ष्मण घीरु हम सीस कि बायहाथ जोड़ बीचती करे हैं नाथको हमपर प्रसन्नकरो ये वचन सविनय कहे तब सीता और लक्षमा समके चरणोंकी ओर निरख रहे धम बोले अब तुम पीछे जावो यही उत्तरहे सुखसे रहियो ऐसा कहकर दोनों धीर नदी के विषे प्रवेश करते भये श्रीराम सीता का कर मह सुखसे नदीमें लेगए जैसे कमलबी को दिग्गज लेजाय वह असराल नंदी राम लक्ष्मण के प्रभावकर नाभि प्रमाण बहने लगी दोनों भाई जल विहार में प्रवीण क्रीड़ा करते चलेगए सीताराम के हाथ गहे ऐसी शोभे मानो साक्षात् लक्ष्मीही कमल दलमें तिष्ठ है राम सक्षमण क्षणमात्रमें नदीपार भए वृक्षों के आश्रय श्रायगए तब लोकों की दृष्टिगोचर एक तो विलाप करते मांसू डारते घरको गए और कईएक राम लक्ष्मलकी घरी है दृष्टि जिन्होंने सो काष्ठ कैसे होयरहे और कईएक मूर्द्धाखाय भरतीपर पड़े और कईएक ज्ञान को प्राप्तहोयजिन दीक्षाको उद्यमी भए परस्पर कहतेभये कि धिक्कार है इस असार संसारकोऔर धिक्कारइन क्षणभंगुर भोगोंको ये काले नागके फण समान भयानक हैं ऐसे शूरवीरोंकी यह अवस्था तो हमारी क्या बात इस शरीरको धिक्कारहैजो पानी के बुदबुदा समाननिसार जरामरण इष्टवियोग अनिष्टसंयोग इत्यादिकष्ट की भाजन हैं वे महापुरुष भाग्यवन्त उत्तम चेष्टाके धारक जे मरकट (बंदर) की भौंहसमान लक्ष्मी को चंचलजानतजकरदीक्षा घरतेभयेइस भांति अनेक राजाबिरक्तदीक्षाकोसन्मुखभये जिन्होनेएक पहाडकीतल हटी में सुन्दर वन देखा अनेक वृक्षोंकर मंडित महा सघन नानाप्रकारके पुष्पोंकर शोभित जहां सुगन्धक For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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