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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir Dusu और पति जिनदीक्षा लेयवे को उद्यमी भया हेमवतो पुत्रही का अवलंबन है सो उपभी छोड चलेतो पुरा मेरी क्या गति तब राम वोले हे मात मार्ग में पाषाण और कंटक बहुत हैं तुम कैसे पावोंसे चलोगी इस || लिये कोई सुखकास्थान कर असवारी भेज तुमको बुलालूंगा मुझे तुम्हारे चरणों की सों है तुम्हारे लेने को में श्राऊंगा तुम चिंतामत करो ऐसकह माता को शांतता उपजाय रुखसत हुए फिरपिताके पासगए। पितामुर्छित होय गए सो सचेतभा एपिताको प्रणामकर दूसरी मातावों पे गए सुमित्रा केकई सुप्रभा। सब को प्रणाम कर विदा हुए केसे हैं राम न्यायप्रवीण निराकुल है चित्तजिनकातथा भाई बंधु मंत्री। अनेक गंजा उमराव परिवार के लोकसबको शुभवचन कह बिदाभए सबको बहुत दिलासाकर छातीसे लगाय उनके प्रांस पूंछे उन्होंने घनीही बिनती करी कि यहांहो रहो सो न मानी सामन्त तथा हाथी घोडे रथ सब की ओर कृपादृष्टि कर देखा फिर बडे र सामन्त हाथी घोडे भेट लाए सोरामनेन राखे सीता अपनपति को विदेश गमनको उद्यमी देख मुसरा और सासुनको प्रनामकर नाथके संग चली जैसे राचीइन्द्र के संग चले और लक्षमण स्नेहकर पूर्ण रामको विदेश गमन को उद्यमी देख चित्त में क्रोधकर चितक्ता भया कि हमारे पिता ने स्त्रीके कहे से यह क्या अन्यायकार्य विचारा जो रामकोटार और को राज्य दिया धिक्कार है स्त्रियों को जो अनुचित काम करतीशंका न करें, स्वार्थ विषेत्रासक्त है चित्तजिनका और यह बड़ा भाई महानुभाव पुरुषोत्तम है सो ऐसे परिणाम मुनियोंके होयहें, और में ऐसा सामर्थ हूं जो समस्त दुराचारियों का पराभव कर भरतकोराज्यलक्ष्मी से रहित करूं और राज्य लक्ष्मी श्रीरामकेचरणों में | लाऊं परन्तु यह वात उचित नहीं क्रोध महा दुखदाई है जीवों को अन्ध करे है पिता तो दीक्षा को उद्यमी । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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