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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराश पश्य है मेरी जीत भई तब में तुष्टासमान होय इसे वर दीया कि जोतेरें बांछो होय सोमांग तव इसने वचन मेर liwen घरोहर मेला अब यह कहे है कि मेरे पुत्रको राज्य देवो सो जो इसके पुत्रको राज्य न देउं तो इसका पुत्र भरत संसार का त्यागकरे और यह पुत्रके शोककर प्राण तजे और मेरी वचन चूकने की अकीर्ति जगत्में विस्तरे और यह काम मर्यादा से विपरीतहै कि जो बड़े पुत्रको छोड़कर छोटे पुत्रको राज्यदेना। और भरतको सकल पृथिवीका राज्य दीए तुम लक्ष्मणसहित कहां जावो तुम दोनोंभाई परमक्षली तेज के घरणहारे हो इसलिये हे वत्स में क्या करूं दोनोही कठिन बात पाय बनी हैं में अत्यन्तदुःखरूप चिंता के सागर में पड़ा हूं तब श्रीरामचन्द्रजी महा विनयको घरतेभए पिताके चरणारविंदकी ओर हैं नेत्र जिन के और महा सज्जन भावको घरहें हे तात तुम अपने वचनको पालो हमारी चिंता तजो जोतुम्हारे वचन चूकने की अपकीर्ति होय और हमारे इन्दकी सम्पदा भावे तो कौन अर्थ जो सुपुत्रहें सो ऐसाही कार्य करे जिसकर माता पिताको रंचमात्रभी शोक न उपजे पुत्रका यही पुत्रपना पंडित कहे हैं जो पिताको पवित्र करे और कष्ट से रक्षा करे पवित्र करणा यह कहावे जो उनको जिनधर्म के सन्मुख करे दशरथ के और राम लक्ष्मणके यह बात होयहे उसी समय भरत महिलसे उतरा मनमें विचोरी कि मैं कर्मों को हनूं मुनिव्रत धरूंसोलोकोंके मुखसे हाहाकार शब्दभया तब पिताने विठ्ठल चिसहोय मरतो बन जायचे से राखा गोद में ले बैठे छातीसे लगाय लियो मुख चूमा और कहते मए हे पुत्र तू प्रजाका पालन कर। में तप के अर्थ बनमें जाऊं हूं भरत बोले में राज्य न करूं जिन दीक्षा धरूंगा तब राजा कहतेभये हे। वत्स कईएकदिन राज्यकरो तुम्हारी नवीन वय है वृद्ध अवस्था में तप कस्यिो तब भरतने कही हे लात | For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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