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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पा पुराण ॥४६॥ इस लोकाकाशमें चेतना लक्षण जीव अनन्त हैं उनका विनाश नहीं संसारी जीव निरन्तर पृथ्वी काय जलकाय अग्निकाय वायुकाय वनस्पातकाय त्रसकाय ये छै काय तिनमें देह धार भ्रमण करे । हैं यह त्रैलोक्य अनादिअनन्तहै इसमें स्थावर जंगमजीव अपने २ कर्मों के समूहकरबन्धे नाना योनियों में भ्रमण करे हैं और जिनराजके धर्मकर अनन्त सिद्धमए और अनन्त सिद्ध होवेंगे और होय हैं। जिन मार्ग टारकर और मार्ग मोक्ष नहीं । और अनन्तकाल व्यतीत भयाऔर अनन्त काल व्यतीत || होयगा। कालका अन्त नहीं जो जीव सन्देह रूप कलंककर कलंकी हैं और पापकर पूर्ण हैं और धर्मको नहीं जाने हैं उनके जैनका श्रद्धान कहां से होय और जिनके श्रद्धान नहीं सम्यक्तसे रहितहें। तिनके धर्म कहांसे होय और धर्मरूप वृक्ष बिना मोक्षफल कैसे पावे अज्ञान अनन्त दुखका कारणहैजे । मिथ्यादृष्टि अधर्ममें अनुरागी हैं और प्रतिउम्रपाप कर्मरूप कंचुकी (चोला )कर मंडितहैं। रागादि में | विषय के भरे हैं तिनका कल्याण कैसे होय दुःख ही भोगवे हैं एकहस्तिनागपुर विषे उपास्तनामा पुरुष उस की दीपनी नामास्त्री सो मिथ्याभिमान करपूर्ण जिसके कुछनियम तनहीं श्रद्धानराहत महाक्रोधवंतीप्रदेख सकी कषायरूप विषकी धारणहारी महादुर्भाव निरंतर साधुवोंकीनिंदा करण हारी कुशब्द बोलन हारी | महाकृपण कुटिल श्राप किसी को कदेही नदेय और जो कोई दान करे उसको मनेकरेधनकी पिरानी और धर्म नमाने इत्यादिक महादोषकी भरी मिथ्यामार्ग की सेवक सो पापकर्म के प्रमाक्कर भवसागरविले अनन्तकाल भ्रमणकरती भई और उपास्तिदान के अनुरागकर नन्द्रधरनगरविषे भद्रनामा मनुष्यउसके धारिणी स्त्री उसके धारणनामा पुत्रभया भाग्यवान बहुत कुटुम्बी उसके नयनमुन्दरी नामात्री सो धारणजे - For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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