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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म ॥४५३॥ नगरके बाहिर चारों तरफ विद्याधरों की सेना सैकड़ों सामतों से पूर्ण देखञ्चाश्चर्य को प्राप्त भया विद्याधरों पुराण ने इन्द्रके नगरतुल्य सेनाका स्थानक क्षणमात्रमें वनाय राखा है जिसके ऊंचाकोट बड़ा दरवाजा जे पताका तोरण तिनसे शोभायमान रत्नोंसे मंडितऐसा निवास देख राजादशरथ जहां बनमें साधु विराजें थे वहांगया नमस्कारकर स्तुतिकर राजाचन्द्रगति का वैराग्य देखा विद्याधरोंसहित श्री गुरूकी पूजा करी राजा दशरथ सर्व बांधव सहितएक तरफ बैठा और भामंडल सर्व विद्याधरों सहित एकतरफ बैठा विद्याघर और भूमिगोचरी मुनिके पासयति और श्रावक का धर्म श्रवणकरते भए भामंडल पिता के वैराग्य होयवे कर कछुइक शोकवानबैठा तब मुनि कहते भए जो यतिकाधर्म है सो शूरवीरों का है जिनके गृहबास नहीं महाशान्त दशा है आनन्दका कारण है महा दुर्लभ है त्रैलोक्य में सार है कायरजीवों को भयानक भासे है भव्य जीव मुनिपदको पायकर अविनाशी धामको पावे हैं अथवा इन्द्र अहमिन्द्र पद लहे हैं लोक के शिखर जो सिद्धस्थानक है सो मुनिपद विना नहीं पाइये है कैसे हैं मुनि सम्यग्दर्शन कर मण्डित हैं जिन मार्ग से निर्वाण के सुख को प्राप्त होय और चतुर्गतिके दुख से छूटे सोही मार्ग श्रेष्ठ है सो सर्वभूतहित मुनि ने मेघकी गर्जना समान है ध्वनि जिसकी सर्व जीवोंके चित्तको आनन्दकारी ऐसे वचन कहे कैसे हैं मुनि समस्त तत्वोंके ज्ञाता सो मुनिके वचनरूप जल संदेह रूप ताप के हरता प्राणी जीवों ने कर्ण रूप अञ्जुलियों से पीए कईएक मुनिभए कईएक श्रावकभये महा धर्मानुराग कर युक्त है चित्त जिनका धर्मका व्याख्यान होयचुका तब दशरथ पूछताभया हे नाथ चन्द्रगति विद्याघरको कौन कारण वैराग्य उपजा और सीता अपने भाई भामण्डल का चरित्र सुननेकी इच्छा करती हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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