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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobetirth.org ॥४१३ जो सर्वज्ञ वीतराग् देव तिनका पवित्र जो मार्ग उसकी श्रद्धाकरी जगतके बांधव जे श्रीगुरु तिनकी श्राज्ञाकर मैंने मद्यमांसकात्यागरूप व्रत श्रादराक्योंकि मेरी शाक्त हीनथी इसलिये विशेषत्रत न लेय सका देखो जिनशासनका अद्भुत महात्म्य जो में महापापीथा सो एतेही ब्रतसे में दुर्गतिमें न गया जिन धर्मके शरणसे जनककी राणी विदेहाके गर्भ में उपजी और सीताभी उपजी सो कन्या सहित मेग। जन्म भया और वह पूर्वभवका विरोधी विप्र जिसकी मैंने स्त्री हरी थी सो भी देव भया और मुझे जन्मतेही जैसे गृद्ध पक्षी मांसकी डली को लेजाय तैसे नक्षत्रोंसे ऊपर आकाशमें ले गया सोपहिले तो उसने विचार किया कि इसको मारूं फिर करुणासे कुंडल पहराय लघुपरण विद्याकर मुझे यत्न सो डारा सो गत्रिमें आकाशसे पड़ता तुमने झेला और दयावान होय अपनी गणको सौंपा सो मैं | तुम्हारे प्रसादसे बृद्धिको प्राप्तभया अनेक विद्याका धारकमया तुमने बहुत लड़ाया और माताने मेरी ।। बहुत प्रतिपालन करी भामंडल ऐसे कहके चुप होरहा सो राजा चन्द्रगति यह वृतांत सुनकर परम प्रबोध । को प्राप्तभया और इंद्रियों के विषयोंकी बासनातज महावैराग्य अंगीकार करनेको उद्यमीभया ग्राम धर्म कहिए स्त्रीसेवन सोई भया बृक्ष उसे सुखफलोंसे रहित जान और संसारको बन्धन जानकर अपनाराज्य भामंडलको देय श्राप सर्व भूतहित स्वामीके समीपशीघ्रही आया वे सर्व भूतहित स्वामी पृथ्वी पर सूर्यसमान प्रसिद्ध गुणरूप किरणोंके समूहकर भव्य जीवोंको अानन्दके करनहारे सो राजा चन्द्रगति विद्याधरने महेन्द्रोदय उद्यानमें आय मुनिकी अर्चनाकरी फिर नमस्कार स्तुतिकर सीस निवाय हाथ जोड इस भांति कहताभया हे भगवान तुम्हारे प्रसादकर में जिनदीक्षा लेय तप किया चाहूं हूं मैं गृहवास से For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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