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पन्न
॥४६॥
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वर्षाकाल विदेश गमनकरनेवालोंको भयानक है वर्षतीजो मेघमाला और चमकती जो विजुरी और गर-1 जती जो कारीघटा तिनकी भयंकर जो ध्वनि उनसे मानो सूर्यको खिझावता हुवा पृथिवीपर प्रकट भया है सूर्य ग्रीष्म ऋतुमें लोकोंको पातापकारीथा सो अब स्थूल मेघकी धाराके अन्धकारसे भयखाय भाज मेघमालामें छिपा चाहे हे और पृथिवीतल हरे नाजकी अंकूरोंरूप कंचुकिनकर मंडितहै और महानदियों के प्रवाह बृद्धिको प्राप्तभए हैं ढाहा पाड़ते बहे हैं इस ऋतुवों में जे गमन करे हैं वे अति कम्पायमान होवे हैं और तिनके चित्तमें अनेक प्रकारकी प्रान्ति उपजे है ऐसी वर्षा ऋतुमें जैनी जन खड़गकी धारा समान कठिन व्रत निरन्तर घारे हैं चारण मुनि और भूमिचारी मुनि चातुर्मासिक में नाना प्रकारके नियम घरते भए वे मुनि हे श्रेणिक ! तेरी रक्षाकरें रागादिक परणति से तुझे निवृत्त करें। . अथानन्तर प्रभात समय राजा दशरथ कादित्रों के नादसे जाग्रत भया जैसे सूर्य उदयको प्राप्त होय
और प्रात समय कूकड़े बोलने लगे सारिस चकवा सरोबर तथा नदियों के तट पर शब्द करते भये स्त्री पुरुष सेजसे उठे भगवान के जे चैत्यालय तिन में मेरी मृदंग बीणा वादिनों के नाद होतेभये लोक निद्राको तज जिन पूजनादिक में प्रवरते दीपक मन्द ज्योतिभए चन्द्रमाकी प्रभा मन्दभई कमल फूले कुमुद मुद्रित भये और जैसे जिन सिद्धान्तके ज्ञाताओं के वचनोंसे मिथ्यावादी विलयजांय तेसे सूर्यकी किरणों से प्रह तारा नक्षत्र छिपगए इसभांति प्रभात समय अत्यन्त निर्मल प्रकटभया तब गजा देह कृत्य क्रियाकर भगवानकीपूजोकर वारम्बारनमस्कारकस्ताभया और भद्रजातिकीहथिनीपरचढ देवोंसारिखे जे राजा तिनके समूहोंसे सेव्यमान और गैर मुनियों को और जिनमन्दिरों को नमस्कार करता महेन्द्रोदय बनमें
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