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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म पुरास ४४३ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करहीनता जानी तक तुमने मेरा कभी भी अनादर न किया अब काहे से अनादर किया यह बात राजा से राणी क है है उसी समय वृद्ध खोजा गन्धोदक ले आया और कहता भया हे देवी यह भगवानका गन्धोदक नरनाथ ने तुम को पठाया है सो लेवो और उसी समय तीनों राणी आई और कहती भई है मुग्धे पति की तुमपर प्रतिकृपा है तू कोप को क्यों प्राप्त भई देख हमको तो गन्धोदक दासी ले आई और तेरे वृद्धखोजा या पतिके तोसे प्रेम में न्यूनतानहीं जो पति में अपराधभी होय और वहा स्नेहकी बात करें तो उत्तम स्त्री प्रसन्न ही होय हैं है शोभने पति से क्रोध करना सुखके विघ्नका कारण सो कोप उचित्तनहीं सो उन्होंने जब इस भांति संतोष उपजाया तब सुप्रभाने प्रसन्न होय गंधोदक सीसपर चढ़ाया नेत्रों को लगाया राजा खोजा से कोप कर कहते भए है निकृष्टतें एती ढाल क्यों लगाई तब वहभय कर कंपायमान होय हाथ जोड़ सीस निवाय कहता भया हे भक्तवत्सल हे देव हे विज्ञान भूषण अत्यन्त बृद्ध अवस्था कर हीनशक्ति जो मैं सो मेरा क्या अपराध मोपर आपक्रोध करो सो मैं क्रोधका पात्र नहीं प्रथम अवस्था में मेरे भुज हाथी के सूंड समान थे उरस्थल प्रबल था और जांघ गजबंधन तुल्य थी और शरीर दृढ़ था अब कर्म के उदय से शरीर अत्यन्त शिथिल होय गया पूर्वे ऊंची नीची धरती राजहंस की न्याई उलंघ जाता मन बांछित स्थान जाय पहुंचताथा अब स्थानक से उठा भी नहीं नाय है तुम्हारे पिता के प्रसाद कर में यह शरीर नाना प्रकार लड़ाया था सो अब कुमित्र की न्याई दुःख का कारण होय गया पूर्व मुझे वैरीयों के बिदारने की शक्तिथी सो व तो लाठी के अवलंवन कर महाकष्टसे फिरू हूं बलवान् पुरुषों ने खैंचा जो धनुष उस समान वक्रमेरी पौड हो गई है और मस्तक के केश अस्थिसमान श्वेत हो For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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