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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥४२॥ पद्म || है और सीता ऐसे शब्द उच्चारण करे है और नाना प्रकार की प्रज्ञानचेष्टा करे है मानों इसे वाय लगी है इसलिये तुम शीघ्र ही सीता उपजावने का उपाय विचारो वह भोजनादिक से पराण्मुख होय गया है सो उसके प्राण न छूटें इस पहिले ही यत्न करो । तब यह वार्ता चन्द्रगति सुन कर अति व्याकुल भया अपनी स्त्री सहित प्राय कर पुत्र को ऐसे कहता भया हे पुत्र तू स्थिरचिच हो और भोजनादि सर्वक्रिया जैसे पूर्वे करे था तेसे कर जो कन्या तेरे मन में बसी है सो तुझे शीघ्र ही परणाऊंगा, इसभान्ति कहकर पुत्रको शांतता उपजाय राजा चन्द्रगति एकान्त में हर्ष विषाद भोर पाश्चये को घरता संता अपनी स्त्री से कहता भवा हे प्रिये विद्याधगें की कन्या अतिरूपबन्ती अनुपम उन को तज कर भूमिगो. चरियों का सम्बन्ध हम को कहां उचित, और भमिगोवरियों के घर हम कैसे जावेंगे भौर जो कदाचित हम आय प्रार्थना करें और वह न दें तो हमारे मुख की प्रमा कहां रहेगी, इसलिये कोई उपाय कर कन्या के पिता को यहां शीघ्र ही ल्याबें और उपाय नहीं, तब भामंडल की माता कहती भई हे नाथ युक्त अथवो अयुक्त तुमही जानों तथापि ये तुम्हारे वचन मुझे प्रिय लगे हैं। __अथानन्तर चन्द्रगतिराजाने एक अपने सेवक चपलवेग नामा विद्याधर को आदर सहित बुलाय कर सकल वृत्तान्त उसको कान में कहा और नीके समझाया सो चपलवेग राजा की आज्ञा पोय बहुत हर्षित होय शीघ ही मिथिला नगरी को चलो, जैसे प्रसन्न भया तरुण हंस सुगंध की भरी जो कमलनी उसकी ओर जाय, यह शीघ्र ही मिथिलानगरी जाय पहुंचा पाकास से उतर कर | अश्व का भेष धर गांय महिषादि पशुओं को त्रास उपजावता भया, राजा के मंडल में उपद्रव , For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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