SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 423
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पा पुराण ॥४९४।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किंचित्मात्र भी धरें तो वे अतिमनोग्यरूप भासें जैसी यह सीता सब से सुन्दर है, इसको रूप गुण युक्त देख राजा जनक ने विचारा, जैसे रति कामदेव ही को योग्य है तैसे यह कन्या सर्व विज्ञान युक्त दशस्थ बड़े पुत्र जो राम तिनही के योग्य है सूर्य्य की किरण के योग से कमल की शोभा प्रकट होत है ॥ ॥ इति बब्बीसवां पव पूण भया ॥ अथानन्तर राजा श्रेणिक यह कथा सुनकर गौतमस्वामीको पूछताभया हे प्रभो जनकने रामका क्या माहात्म्य देखा जो अपनी पुत्री देनी विचारी तव गणधर चित्तको आनन्दकारी वचन कहतेभए हे राजन् महा पुण्याधिकारी जो श्रीरामचन्द्र तिनको सुयश सुन जिसकारणसे जनकने रामको अपनी कन्या देनी विचारी । बैताब्यपर्वत के दक्षिण भाग में और कैलाश पर्बत के उत्तर भाग में अनेक अन्तर देश बसे है तिनमें एक अर्धववर देश असंयमी जीवोंका है जहां महा मूढ़ जन निर्दई म्लेच्छ लोकों कर मरा उस में एक मयूरमाला नामा नगर काल के नगर समान महा भयानक वहाँ अन्तरगत नामा म्लेच्छ राज्य करे सो महा पापी दुष्टों का नायक महा निर्दई बड़ी सेना से नाना प्रकार के आयुधों कर मण्डित सकल म्लेच्छ संगले आर्य देश उजड़नेको आया सो अनेक देश उजाड़े कैसे हैं म्लेच्छ करुणाभाव रहित प्रचण्ड हैं चित्त जिनके और अत्यन्त है दौड़ जिनकी सो जनक राजाका देश उजाड़नेको उद्यमी भए जैसे टिड्डीदल आवे तैसे म्लेच्छोंके दल आए सबको उपद्रवकरणलगे तब राजा जनकने अयोध्या को शीघ्र ही मनुष्य पठाए म्लेच्छके आवने के सब समाचार राजा दशरथ को लिखें सो जनक के जन शीघ्र जाय सकलवृत्तान्त दशरथ सों कहते भए हे देव जनक वीनती करी है परचक्र भीलोंका याय For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy