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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराव 11४१२॥ जो यह पुत्र सो मातापिताने इसका नाम प्रभामंडल परा और पोपने के निमिच धायको सौंपा सर्व अंतःपुर की राणी श्रादि सकल स्त्री तिनके हाथरूप कमलोंका भ्रमर होता भया भावार्थ यह बालक सर्व लोकोंको बल्लभ बालक सुखको तिष्ठे है यह तो कथा यहाँही रही। अथानंतर मिथिलापुरमें राजा जनककी सनी विदेहा पुत्रको हस जान विलाप करती भई अति ऊंचे स्वरकर रुदन किया सर्व कुटम्बके लोक शोकसागरमें पडे राखी ऐसे पुकारे मानों शस्त्रकर मारी हे हाय पुत्र तुझे कौन लेगया मुझे महा दुःखका करनहारा कह निर्दई कठोर चिसके हाथ तेरे लेनेपर कैसे पड़े जैसे पश्चिम दिशाकी तरफ सूर्य प्राय अस्त होय जाय तेसे तूमेरे मदभागिनीके आयकर अस्तहोय गया मैं भी परमवमें किसीका बालक विछोहाथा सो मैं फलपाया इस लिये कभी भी अशुभ कर्म, न करना जो अशुभकर्म है सो दुःसका वीजजसे वीज बिना वृक्ष नहीं तैसे अशुभकर्म बिना दुःख नहीं जिसपापीने मेरा पुत्र हरा सो मुझेही क्यों न मार गया अधमुईकर दुःखके सागरमें काहंको डबो गया इसभांति राणीने अति विलाप किया तब राजाजनक पाय धीर्य बंधावताभया हे प्रिये तु शोकको मत। प्राप्त होवे तेरा पुत्र जीवे है किसीन हराहे सो त निश्चय सेती देखेगीथा काहेको रुदनकरे है पूर्वकर्म के प्रभावकर गई वस्तु कोईतो देखिए कोई नदेखिएतूस्थिरताको प्राप्तहो राजा दशरथ मेरापरम मित्र है सो उसको यह वार्ता लिखू हूं वह और मैं तेरे पुत्रको तलाशकर लावेंगे भले २ प्रवीण मनुष्य तेरे । पुत्रके इंदिवेको पठावेंगे इसमांति कहकर राजाजनकने अपनी स्त्रीको संतोष उपजाय दशरथ पास लेख भेजासो दशरथ लेखवांच महा शोकवतभया राजादशरय और अनक दोनोंने पृथ्वीमें बालकको तलाश For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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