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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण पद्म निवास हैं और मध्य लोकमें भी हैं वे दुष्ट कर्म के करनहारे नीच देवहे जे जीव कषाय सहित तापस | होय हैं वे नीच देवों में निपजे हैं पाताल में प्रथमही रत्नप्रभा पृथ्वी ताके छै भाग और पंक || भागमें तो भवनवासी और व्यन्तर देवोंके निवास हैं और बहल भागमें पहिला नरक उस के नीचे छह नरक और हैं । ये सातों नरक छह रात में हैं और सातवें नरकके नीचे एक राजूमें निगोदादि । स्थावर ही हैं स जीव नहीं हैं और निगोदसे तीनों लोक भरे हैं। अथानंतर नरकका व्याख्यान सुनो कैसे हैं नारकी जीवमहाकूर महाकुशब्दकेबोलनहारे अतिकठोरहै स्पर्श जिनका महादुरगन्ध अन्धकाररूप नरकमें पड़े हैं उपमारहित जे दुख तिनका भोगनहाराहै शरीर जिनका महाभयंकर नरक जिसे कुम्भीपाक कहिए जहां वेतरणी नदी है और तीक्ष्ण कंटकयुक्त शाल्मली वृत जहां असिपत्रवन तीक्षणखडगकी धारासमानह पत्रजिनके और जहां देदीप्यमान अग्निसे ततायमान तीखे लोहे। के कीले निरन्स हैं उन नरकोंमें मधु मांसके भषणहारे और जीवोंके मारणहारे निरन्तर दुख भोगेहें जहां एक बाघ अंगुल मात्रमी क्षेत्र सुखका कारण नहीं और एक पलकभी नारकियोंको विश्राम महीं जो चाहें किकहूं भाजकर छिप रहें तो जहा आय तहाही नारकी मारें और असुरकुमार पापी देव बताय देय महा प्रज्वलित अंगार तुल्य जो मरककी भूमि उसमें पड़े ऐसे विलाप करेंजेसे अग्नि में मत्स्य व्याकुल हुया विलाप करे और भयसे व्यास किसी प्रकार निकसकर अन्य ठौर गया चाहे तो तिमको शीतलता निमिच और नारकी वैतरणी नदी के जलसे छांटे देय सो वेतरणी महा दुर्गन्ध चारजलकी भरी उससे अधिकवाहको प्राप्त होस फिर विश्रामके अर्थ असिपञ्चवममें जाय सो असिपनासिर For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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