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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण M४०१ रुखसतकिया तब अपने अपने घरमाए वैवस्वतने अपनी पुत्रीअरिको परणाय विदाकियासोरात्रिहीपयाण || कर अयोध्या पाया राजा दशरथसे मिला अपनी बाणविद्या दिखाई तब राजा प्रसन्न होय अपने चारों पुत्र बाणविद्या सीखनेको इसके निकट राखेवे बाणविद्या विषे अति प्रवीण भए जैसे निर्मल सरोवर में चन्द्रमा की कांति विस्तार को प्राप्त होय तैसे इन में वाणविद्या विस्तार को प्राप्त भई और और भी अनेक विद्या गुरुसंयोग से तिनको सिद्ध भई जैसे किसी और रत्न मेले होवें और ढकने से ढकेहोवेंसो दकना उघाड़े प्रकटहोंय तैसे सर्वविद्या प्रकटभई तब राजा अपने पुत्रों की सर्व शास्त्रों में अति प्रवीणता देख और पुत्रोंका विनय उदार चेष्टा अवलोकन कर अतिप्रसन्न भया इनके सर्वविद्यावोंके गुरुवोंकीबहुत सनमानता करी राजा दशरथ गुणोंके समूहसे युक्त महाज्ञानी ने जो उनकी वांछाथी उससे भी अधिक संपदा दीनी दानविषे विख्यात है कीर्ति जिनकी केतेक जीव शास्रज्ञान को पायकर परम उत्कृष्टताको प्राप्त होय हैं और कैयक जैसे के तैसेही रहे हैं और कैयक विषम कर्मके योगसे मदसे प्रांघेहोंयहें जैसे सूर्यको किरण स्फटिकगिरि के तट विषेष अति प्रकाश को घरे है और स्थानक विषे यथास्थित प्रकाम || को घरे है और उल्लुवोंके समूह में अतितिमिर रूपहोय परणवे ॥ इति पच्चीसवां पर्व संपूर्णम् ॥ - अथानन्तरगौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं हैोषिक! अबभामंडल और सीताको कथनसुनोरामा जनक की स्त्री विदेहा उसे गर्भ रहा सो एक देव के यह अभिलाषा हुई कि जो इसके बालक होय सो में लेजाऊं। तव श्रेणिक ने पूछी हे नाथ उसदेवके ऐसी अभिलाषा काहे से उपजी सो में सुना चाहू हूं || तब गौतमस्वामी कहते भए हे राजन् ! एक चक्रपुर नामा नमर है वहां चक्रध्वज नामा राजा उसकेगणी || For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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