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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म पराव १॥३६॥ वचनथा कि जो तुम वैराग्य पारो तब मुझे जतावना और में वैराग्य जागा तो तुम्हेजताऊंगा सो उसने जब वैराग्य धारा तब अरण्यको जतावादिया तब राजा अरण्यने सहस्ररश्मिको मुनिहुवा जानकर दशरथपुत्र को राज्य देय श्राप अनन्तस्थ पुत्र सहित अभयसेन मुनि के समीप जिन दीक्षा धारी महातप से कमी का नाश कर मोक्षको प्राप्त भए और अनन्तरथ मुनि सर्व परिग्रह रहित पृथिवी पर विहार करतेभए बाईस परीषह के सहन हारे किसी प्रकार उद्वेग को न प्राप्त भए तब इन का अनन्तवीर्य नाम पृथिवी पर प्रसिद्ध भया और राजा दशरथ राज्य करे सो महा सुन्दर शरीर नवयौवन विषे अतिशोभायमान होताभया अनेक प्रकार पुष्पों से शोभित मानों पर्वत का उतंग शिखर ही है। अथानन्तर दर्भस्थल नगर का राजा कौशल प्रशंसा योग्य गुणों का घरण हारा उस के राणी अमृतप्रभाकी पुत्री कौशल्या जिसकोअपराजिताभी कहे हैं काहे सेकियह स्त्रीके गुणसे शोभायमान कामकी स्त्री रति समान महासुन्दर किसीसे नजीती जाय महारूपवन्ती सो राजादशरथनेपरणी फिर एक कमल संकुल नामा बड़ा नगर वहांका राजा सुबन्धुतिलक उसकेराणी मित्रा उसके पुत्री सुमित्रा सर्वगुणोस मंडित महारूपवती जिसको नेत्ररूप कमलोंसे देखे मन हर्षितहोय पृथ्वीपर प्रसिद्ध सोभी दशरथने परणी और एक महाराज नाम राजा उसकी पुत्री सुप्रभा रूप लावण्यकी खान जिसे लख लक्ष्मी लजा वान होय सोभी राजा दशरथने परणी और राजा दशरथ सम्यक दर्शनको प्राप्त होते भए और राज्य का परम उदय पाय सो सम्यक दर्शनको रत्नों समान जानते भए और राज्यको तृण समान मानते | भए कि जो राज्य न तजे तो यह जीव नरकमें प्राप्त होय राज्य तजेतो स्वर्ग मुक्ति पावे और सम्यक For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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