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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir "३० पन नावने पावे मेरा पुत्र सुकुमार है भोला है कोमलचित है सो उसे देखने न पाये, इसके सिवाय और भी यति हमारे दारे प्रावने न पावें, रेद्वारपालहो इसबातमें चूकपड़ी तो में तुम्हारा निग्रह करूंगी जब से ! यह दया रहित बालक पुत्रको तज कर मुनि भया तप से इस भेष का मेरेादर नहीं, यह राज्यलक्ष्मी। 'निन्दे है और लोगों को वैराग्यप्राप्तकरे हे भोगछुड़ाय योगसिखावे है, जब राणी ने ऐसे वचन कहे तब वे | ऋर द्वारपाल वैत की छड़ी है जिनके हाथ में मुनिको मुख से दुखचन कह कर नगर से निकास दिए। और आहार को चौर भी साधु नगर में आए थेवे भी निकास दिवे मत कदाचित् मेरा पुत्र धर्म श्रवणकरे इस भांति कीर्तिपरका अविनय देख राजा सुकौशलकी पाय महाशोक कर रुदन करती भई तब राजा, सुकौशल घाय को रोवती देख कहते भए हे माता तेरा अपमान करे ऐसा कौन माता तो मेरी गर्य! धारण मात्रहै और तेरे दुग्ध से मेरा शरीर वृद्धिको प्राप्त भया सो मेरे तू माता से भी अधिक है जो! मृत्यु के मुख में प्रवेश किया चाहे सो तोहि दुखावे जो मेरी माता ने भी तेरा अनादर किया होय तो में उसका भी अविनय करूं औरों की क्या बात, सब वसंतलता पाय कहती भई, हे राजन तेरा पिता तुझे बालअवस्था में राज्यदेय संसाररूप कष्टके पीजरेसे भयभीत होय तपोवनकोगये सावह आज इसनगर । में आहार को पाए थे सोतुम्हारीमाताने द्वारपालोंसे श्राज्ञा कर नगर से कढाये हेपुत्र वे हमारे सबकस्वामी सो उनका प्रविनय में देख न सकी इस लिये रुदन करहूं और तुम्हारी कृपा कर मेराअपमान कौन करे। और साधुवों को देखकर मेरा पुत्रज्ञान को प्राप्तहोय एसाजान मुनोंका प्रवेश नगरसे निकारा सो तुम्हारे । | गोत्र विषे यह धर्म परम्पराय से चलाभाया है किजो पुत्र को राज्य देय पिता वैरामी होय हैं और For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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