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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र की आज्ञा प्रमाण अन्तराय रहित भोजन करतेभये वृषभदत्त भगवान को अहार देय कृतार्थ भया भगवान के एक महीना तप कर चम्पा के वृक्ष के तले शुक्ल ध्यान के प्रताप कर घातिया कर्मोका नाशकर केवल को प्राप्त भए तब इन्द्र सहित देव आयकर प्रणाम और स्तुति कर धर्म श्रवण करते भए आपने यति श्रावक का धर्म विधिपूर्वक वर्णनकिया धर्म श्रवण कर कई मनुष्य मुनि भए कई मनुष्य श्रावक भए कई तिर्यंच श्रावक के व्रत धरते भये और देवको बर नहीं सो कई देव सम्यक्तको प्राप्तहोते भए श्रीमुनिसुव्रतनाथ धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कर सुर असुर मनुष्यों से स्तुति करने योग्य अनेक साधुवों सहित पृथिवी पर विहार करतेभए सम्मेदशिखर पर्वत से लोक शिखर को प्राप्तभए यह श्री मुनिसुव्रत नाथ का चरित्र जे प्राणी भाव धर सुनें तिनके समस्त पाप नाश को प्राप्त होंय और ज्ञान सहित तप से परम स्थानको पावें जहां से फेरे आगमन न होय ॥ __अथानन्तर मुनिसुव्रतनाथके पुत्र राजा सुव्रत बहुतकाल राज्यकर दत्त पुत्रको राज्यदेय जिनदीक्षा घर मोक्षको प्राप्तभये और दत्त के एलावर्धन पुत्रभया उसके श्रीवर्धन उसके श्रीबृक्ष उसके संजययंत उसके कुणिम उसके महारथ उसके पुलोमई इत्यादि अनेक राजा हरिवंश कुलमेंभये तिनमें कैयक मुक्ति को गये कैयक स्वर्गलोक गये इस भांति अनेक राजा भये फिर इसी कुलमें एक राजा वासवकेतु भया मिथिला नगरी का पति उसके विपुला नामा पटराणी सुन्दर हैं नेत्र जिसके सो वह राणी परम लक्ष्मी का स्वरूप उसके जनक नामा पुत्र होतेभये समस्त नयों में प्रवीण वे राज्यपाय प्रजाको ऐसे पालतेभये जैसे पिता पुत्रको पाले गौतम स्वामी कहे हैं हे श्रेणिक ! यह जनककी उत्पत्ति तुझे कहीजनक हरिवंशी हैं For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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