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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म पुराण ॥३६३१ तिनसे मलीन मोहरूप सागरके भ्रमणमें मग्न महा दुःखरूप चारगति तिनमें भ्रमणकर तप्तायमान | सदा व्याकुल होयह ऐसाजानकर जे निकट संसारी भव्यजीवहैं वे संसारका भूमण नहीं चाहे हैं मोह । तिमिरका अन्तकर सूर्य समान केवलज्ञानका प्रकाश करे हैं ॥ इति बीसवां पर्व संपूणम् । अयानंतर आगे हरिवंशकी उत्पतिका कथन सुनो भगवान दशमतीयकर जे श्रीशीतलनाथ स्वामी तिन के मोक्षगए पीछे कौशांवीनगरी में एक राजासुमुख भया और उसही नगरमें एक श्रेष्ठीवीर उसकी स्त्री बन मालासोअज्ञानके उदयसे राजा सुमुखने घरमें राखीफिर विवेकको प्राप्तहोय मुनियोंकोदान दिया सो मस्कर विद्याधर और वह बनमाला विद्याधारी भई सो उस विद्याधरने परणी एक दिवस ये दोनों क्रीड़ा करनेको हरि क्षेत्र गये और वह श्रेष्ठीबार बनमालाका पति विरहरूप अग्निकरदग्धायमान सो तपकर देवलोककोप्राप्त भया एक दिवस अवधिकर वहदेव अपने बैरी सुमुखको हरितेवमें क्रीड़ा करता जानक्रोधकर वहांसे भार्या सहित उठाय लाया सो वह इस क्षेत्रमें हरि नामसे प्रसिद्ध भया इसी कारणसे इसका कुलहरिबंश कहलाया उस हारके महागिरि नाम पुत्र भया उसके हिमगिरि उसके बमुगिरि उसके इन्द्रगिरि उस के । रत्नमाल उसके संभूत उसके भूतदेव इत्यादि सैंकड़ों राजा हरिबंशमें भए । अथानन्तर हरिवंशमें कुशाग्रनाम नगर विषे एक राजा सुमित्र जगत विषे प्रसिद्ध भया कैसे हैंगजा सुमित्रभोगोंकर इन्द्र समान कांतिसे जीताहै चन्द्रमा जिसने और दीप्तकर जीताहै सूर्य और प्रताप कर नवाए हैं शत्रु जिसने उसके राणी पद्मावती कमल सारिखे हैं नेत्र जिसके शुभ लक्षणोंसे सम्पूर्ण और पूर्ण भएहें सकल मनोरथ जिसके सो रात्रि में मनोहर महल में सुखरूप सेजपर सूती थी सो | For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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