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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म पुसम ॥३३॥ दिन शौक सहित रहे और हनुमान महा लक्ष्मीवान् समस्त पृथिवी पर प्रसिद्ध है कीर्ति जिस की सो ऐसे पुत्र को देख पवनञ्जय और अञ्जनी महासुखरूप समुद्रमें मग्न भए सवण तीन खण्ड का नाप और सुग्रीव जैसे पराक्रमी और हनुमान सारिखे महाभट विद्याधरों के अधिपति तिन का नायक लंका नगरी में सुख से रमे समस्त लोक को सुखदाई जैसे स्वर्ग लोक विषे इन्द्र में हैं तैसे में विस्तीर्ण है कान्ति जिस की महा सुन्दर अठारह हजार राणी तिन के मुखकमल तिन का भ्रमर भया घायु व्यतीत होती न. जानी जिसके एक स्त्री कुरूप और प्राज्ञा रहित होय सो पुरुष उन्मत्त होय रहे हैं जिसके अष्टादश सहस्र पद्मनी पतिव्रता आज्ञा कारणी लक्ष्मी समान होंय उसकेप्रभाव का क्या कहना तीनखण्ड का अधिपति अनुपम है कान्ति जिसकी समस्त विद्याधर और भूमिगोचरी सिर पर पारे हैं श्राज्ञा जिस की सो सर्व राजाओं ने अर्धचक्री पद का अभिषेक कराया और अपना स्वामीजाना विद्याधरों के अधिपति तिन से पूजनीक हैं चरण कमल जिसके, लक्ष्मी कीर्ति कान्ति परिवार जिस समान और के नहीं मानोयोग्यहैदेहजिस का वह दशमुख राजा चन्द्रामा समान बड़े बड़े पुरुषरूप जे ग्रह तिनसे मण्डित पाल्हाद का उपजावन हारा कौनके चित्त को न हरे जिसकेसुदर्शन चक्र सर्व कार्यकी सिद्धि करण हारा देवाधिष्ठितमध्यान्हके सर्पकी किरणोंकेसमानहै किरणोंका समूह जिसमें जबजे उद्धत प्रचंडनृपवर्गाज्ञा न मानें तिनका विध्वंसक अतिदेदीप्यमान नाना प्रकार के रत्नोंकर मंडित शोभता भया और दंडरत्न दुष्टजीवोंको कालसमान भयंकर देदीप्यमान है उग्रतेज जिसका मानों उल्कापात का समूहहीहे सोप्रचंड जिस की आयुध शाला विषे प्रकाश करता भया सो रावण आठमा प्रतिवासुदेव सुन्दर हैकीर्ति जिसकी पूर्वोपार्जित कर्मकेवशसे For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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