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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परा भई अश्रुधारासे वदन पखालती रुदन करतीभई कि हाय नाथमेरे प्राणों के आधार मुझमें बांधाहै मन जिन्हों ३२२॥ || ने सोमुझे जन्मदुखारीको छोड़कर कहांगए क्या मुझसे कोप न छोड़ोहो जोसर्व विद्याघरोंसे अदृश्यहोय रहेहो एकबार एकभी अमृत समान वचन मुझसे बोलो एतेदिन ये प्राण तुम्हारे दर्शनकी बांछाकर राखें हैं अब जो तुम न दीखो तो ये प्राण मेरे किस कामके हैं मेरे यह मनोरथथा कि पतिका समागम होगा सो देवने मनोरथ भग्न किया मुझ मन्द भागिनीके अर्थ श्राप कष्ट अवस्थाको प्राप्त भए सो तुम्हारे. कष्टकी दशा सुनकर मेरे प्राण पापी क्यों न विनश जाय ऐसेबिलाप करती अंजनीको देखकर बसन्तमाला कहती भई हे देवी ऐसे अमंगल वचन मत कहो तुम्हारा धनीसे अवश्य मिलाप होयगा और प्रति सूर्य बहुत दिलासा करताभया कि ते रेपतिको शीघही लावे हैं ऐसा कहकर राजाप्रतिसूर्यने मनसेभी उतावला जो विमान उसमें चढ़कर आकाशसे उतरकर पृथिवी विषे ढूंढा प्रतिसूर्यके लार दोनों श्रेणियोंके विद्याघर और लंकाके लोग यत्नकर दूंडे हैं देखते देखते भूतरवर नामा अटवी विषे आए वहाँ अम्बरगोचर नामाहाथी देखा वर्षाकालके सघन मेघ समान है आकार जिसका तब हाथीको देखकर सर्व विद्याधर प्रसन्नभए कि जहां यह हाथी है वहां पवनंजय है पूर्वे हमने यह हाथी अनेक बार देखा है यह हाथी अञ्जनगिरि समान हैं रंग जिसका और कुंदके फूल समान श्वेतहैं दांत जिसके और जैसीचाहिये तैसी सुन्दरहै सूंड जिसकीजबहाथीकेसमीप विद्याधराए तबउसने निरंकुशदेख डरे और हाथीविद्याधरोंके कटककाशब्द सुन महाचोभको प्राप्तभया हाथी महाभयंकर दुर्निवारशीघ्रहै वेगजिसका मदकर भीजरहे हैं कपोल जिसके और हाले हैं और गाजे हैं कान जिसके जिस दिशाको हाथी दौड़े उस दिशासे विद्याधर हटजावें यह हाथी लोगों || For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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