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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म ४२४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नेत्र देखने से रहित भए क्योंकि सूर्य्य के उदय से जो देखनेकी शक्ति प्रगटभईथी सो अस्त होनेसे नष्ट भई और कमल संकुचित भये जैसे बड़े राजाओं के अस्त भये चोरादिक दुर्जन जगत् विषे परधन हर णादिक कुचेष्टा करें तैसे सूर्य के अस्त होने से पृथिवी विषे अन्धकार फैलगया रात्री समय घर २ चम्पे की कली समान जो दीपक तिनका प्रकाश भया, वह दीपक मानो रात्री रूप स्त्री के आभूषणही हैं । कमल के रससे तृप्त होकर राजहंस शयन करते भए और रात्रि सम्बन्धी शीतल मन्द सुगन्ध पवन चलती भई मानो निशा (रात) का स्वासही है और भ्रमरों के समूह कमलों में विश्राम करतेभये और जैसे भगवान के वचनों कर तीन लोकके प्राणी धर्म का साधन कर शोभायमान होय हैं तैसे मनोज्ञ तारों के समूह से आकाश शोभायमान भया और जैसे जिनेन्द्र के उपदेशसे एकान्त वादियोंकी संशय विलाय जाय तैसे चन्द्रमा की किरणों से अन्धकार विलाय गया लोगों के नेत्रों को आनन्द करनहार चन्द्रमा उद्योत समय कम्पायमान भया । मानो अन्धकार पर अत्यन्त कोप भया ( भावार्थ ) क्रोधसमय प्राणी कम्पायमान होय हैं अन्धकार कर जे लोक खेदको प्राप्त भएथे वे चन्द्रमा के उद्योतकर हर्षको प्राप्त भए और चन्द्रमा की किरण को स्पर्श कर कुमुद प्रफुल्लित भये । इस भांति रात्रि का समय लोकों को विश्राम का देनहारा प्रगट भया राजा श्रेणिक को सन्ध्या समय सामायिकपाठ करते जिनेन्द्रकी कथा करते करते घनी रात्रि गई सोनेको उद्यमी भये कैसा है रात्रि का समय जिसमें स्त्रीपुरुषों के हितकी बृद्धिहोय है राजा के शयन का महल गंगा के पुलिन [ किनारो ] समान उज्ज्वल है और रत्नों की ज्योति से अति उद्योत रूप है और फूलोंकी सुगन्धित जहांसे झरोखों के द्वारा आवे है और महलके समीप सुन्दर स्त्री मनोहर For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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