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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir को वसंतमाला कहती भई यहकोई दयावान् देव है जिसने अष्टापद का रूपकर सिंहको भगाया और हमारी रक्षा करी और यह मनोहर राग इसी ने अपने आनन्द के अर्थ गाए हैं हे देवी हे शोभन हे शीलवंती तेरी दया सबही करें जें भव्य जीवहैं तिनके महाभयंकर बनमें देव मित्र होयहैं इस उपसर्ग के विनाश से निश्चय तेरा पति से मिलाप होगा और तेरे पुत्र अद्भुत पराक्रमी होयगा, मुनिके वचन अन्यथा न होंय, सोसुनि के ध्यान कर जो पवित्र गुफा उस में श्री मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा पघराय दोनो सुगंध द्रव्योंसे पूजा करती भई दोनों के चित्तमें यह विचार कि प्रसूति सुखसे होय । वसंतमाला नानाभांति अंजनीके चित्तको प्रसन्न और कहती भई कि हे देवी मानो यह वन और गिरि मुम्हारे पधारने से परम हर्षको प्राप्त भया है सो नीझरने के प्रवाहकरयह पर्वत मानों हंसेही है, और यह वनके वृक्ष फलोंके भार से नम्रीभूत लहलहाटकरे हैं कोमल हैं पल्लव जिनके बिखर रहे हैं फूल जिनके सो मानों हर्ष को प्राप्तभए हैं और जे मयूर सूवा मैना कोकिलादिक मिष्ट शब्दकर रहे हैं सो मानो बन पहाड़ से बचनालाप करे हैं पर्बत नानाप्रकार की जे धातु तिनकी है खान जहां और सघनवृच्चों के जे समूह सोई इस पर्वतरूप राजाके सुन्दर वस्त्र हैं और यहां नानाप्रकार के रत्न हैं सोई इस गिरिके आभूषण भए और इसपर्वत में भली २ गुफा हैं और यहां अनेक जातिके सुगन्धपुष्प हैं और इस पर्वत ऊपर बडेवडे सरोवर हैं जिनमें सुगन्ध कमल फूल रहे हैं। तेरा मुख महासुन्दर अनुपम सो चन्द्रमा की और कमल की उपमा को जीते है कल्याणरुपी चिंता हो धीवर इस वन में सर्वकल्याण होयगा देवसेवा करेंगे हे पुण्याधिकारी तेरा शरीरविश्याप है हर्षसे पची शब्द करे हैं सो मानों तेरी प्रशन्साही करे हैं यहवृच शीतल मन्दसुगन्ध मेरे पत्रों के For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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