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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म पुरवा ३१५० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनधर्मका सेवनकर यतिव्रतियोंकी उपासनाकर ने ऐसे कर्म कियेथे जो अधोगतिको जाती परंतु संयम श्री आर्याने कृपाकर धर्मका उपदेशदिया सो हस्तालम्बनदे कुगतिके पतनसे तू परम सुख पावेगी तेग पुत्र अखंडवीर्य है देवोंसेभी जीता न जाय अब थोड़े ही दिनमें तेरा तेरे भरतार से मिलाप होगा इसलिये हे भव्य तू अपने चित्त में खेद मतकरे प्रमादरहित जो शुभक्रिया उसमें उद्यमी हो यह मुनिके वचन सुन अञ्जनी सुन्दरी र वसन्तमाला बहुत प्रसन्न भई और बारम्बार मुनिको नमस्कार किया फूलगये हैं नेत्र कमल जिनके मुनिराज ने इनको धरमोपदेश देय श्राकाशमार्ग विहारकिया सो निर्मल है चित्तजिनका ऐसे संयमियोंको यही उचित है कि जो निर्जन स्थानकहो वहां निवास करें सोभी अल्पही रहें इसप्रकार निज भव सुन अञ्जनी पाप कर्मसे यति डरी और धर्मविषे सावधान भई वह गुफा मुनिके विराजवेसे पवित्र भई सो वहां अञ्जनी बसन्तमाला सहित पुत्रकी प्रसूति समय देखकर रही । गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं कि हे श्रेणिक अब वह महेन्द्रकी पुत्री गुफामें रहे बसन्तमाला विद्याबलसे पूर्ण विद्या के प्रभावसे खान पान आदि इसके मनवांछित सर्व सामग्री करे यह अञ्जनी पतिव्रता पियारहित बनमे केली सो मानो सूर्य इसका दुःख देख न सका सो अस्त होनेलगा मानों इसके दुःख से सूर्य की किरण भी मन्द होगई सूर्य अस्त होगया पहाड़ के शिखर और वृक्षोंके अप्रभागमें जो किरणों का उद्योत रहाथा सोभी संकोचलिया सन्ध्याकर क्षण एक आकाश मण्डल लाल होगया सो मानों अब taar at सिंह श्रावेगा उसके लाल नेत्रोंकी ललाई फैली है फिर होनहार जो उपसग उसकीप्रेरी शीघ्रही अन्धकारका स्वरूप रात्रि प्रकटभई मानों राक्षसनीही रसातलसे निसरी है पक्षी सन्ध्या समय चिगचगाट कर For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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