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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥३१॥ पद्म वात समर्थ जिनके शरीरको स्पर्श पवन पावे सो प्राणियोंके अनेकरोग दुःखहरे परन्तु आपकर्म निर्जरा । के कारण बाईस परीषह सहतेभये फिर आयु पूरणकर धर्मध्यानके प्रसादसे ज्योतिष चक्रको उलंघ सातवां लांतव नामा जो स्वर्ग वहां बड़ी ऋद्धिके धारी देव भए चाहे जैसा रूप करें चाहे जहां जांय वचनों से कहने में न श्रावे ऐसे अद्भुत सुख भोगे परन्तु स्वर्गके सुखमें मग्न न भए परमधामकी है इच्छाजिन को वहांसे चयकर इस अंजनी की कुक्षि विषे अाए हैं सो महा मरम सुख के भाजन हैं फिर देह न घारेंगे अविनाशी सुखकोप्राप्त होवेंगे वरमशरीरी हैं यह तो पुत्र के गर्भ में प्रावनेका वृतान्त कहा अब हे कल्याण चेष्टिनी इसने जिस कारणसे पतिका विरह और कुटुम्बसे निरादर पाया सो वृतान्त सुन इस अंजनो मुन्दरी ने पूर्व भवमें देवाधिदेव श्री जिनेन्द्र देवकी प्रतिमा पटराणी पदके अभिमानसे सौकन के ऊपर क्रोधकरमंदिरसे बाहिर निकासी उसीसमय एकसमयश्री आर्यिका इसकेघराहारको आईथीतपकर पृथ्वीपर प्रसिद्धथी सो इसके श्रीजीकी मूर्तिका अविनय देख पारणान कियापीछे चली और इसको श्रज्ञान रूपजान महादयावतीहोय उपदेश देतीभई क्योंकि जे साधु जनहैं वे सबका भलाही चाहे हैं जीवोंके समझार्ने के निमित विनापूछेहीसाधुजन श्रीगुरुकी आज्ञासे धर्मोपदेश देनेको प्रवरते हैं.ऐसा जानकर वह संयमश्रीशील संयम रूपाभूपणकी धरणहारी पटराणीको महामाधुर्य अनुपम बचन कहती भई,हे भोरी सुन तू राजाकी पटराणी है और महारूपवती है राजाका बहुत सन्मान है भोगों का स्थानक है शरीर तेरा सो पूर्वोपार्जित पुण्य का फल है इस चतुर्गति में जीव भ्रमे है महा दुःख भोगे है कबहूक अनन्तकाल में पुण्य के योग से मनुष्य देह पावे है हे शोभने यह मनुष्य देह किसी पुण्य के योग से पाई है इसलिये यह निन्द्य For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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