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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथानन्तर मुनि अमृततुल्य परम शांति वचन कहतेभए हे कल्याणरूपिणी हेपुत्री हमारे कर्मानुपण सार सब कुशल है ये सर्वही जीव अपने अपने कर्मोका फल भोगे हैं देखो कर्मोंकी विचित्रता यह गजा महेन्द्रकी पुत्री अपराध रहित कुटुम्ब के लोगों ने काढ़ी है सो मुनि बड़े ज्ञानी विना कहे सर्व वृत्तान्त के जाननहारे तिनको नमस्कार कर बसंतमाला पूछती भई हे नाथ कौन कारण से भरतार इस से बहुत दिन उदास रहे फिर कौन कारण अनुरागी भए और यह महासुख योग्य वनमें कौन कारणसे दखको प्राप्त भई कौन मन्दभागी इसके गर्भ में आया जिसे इसको जीवनका शंसय भया तव स्वामी अमित गति तीनज्ञान के धारक सर्ववृत्तान्त यथार्थ कहते भए, यही महापुरुषों की वृति है जो परायाउपकार करें मुनि बसंतमाला से कहे हैं हे पत्री इसके गर्भ विषे उत्तम पुरुष पाया है सो प्रथम तो जिस कारण से यह अंजनी ऐसे दुःख को प्राप्त भई जो पूर्व भव में पापका आचरणकिया सो सुन । जंबुद्धीप मे भरथ नामा क्षत्र वहां मन्दिर नमा नगर वहां प्रियनंदी नाम गृहस्थी उसकेजाया नाम स्त्रीऔर दमयन्त नाम पुत्र था सो महासौभाग्य संयुक्त कल्याण रूप जे दया क्षमा शील संपादिगुण बेई हैं आभूषण जिसके एक समय बसन्तऋतुमें नन्दनवन तुल्य जो बन वहां नगर के लोग क्रीडाको गए दमयन्त ने भी अपने मित्रों सहित बहुत क्रीढ़ा करी, अबीरादि सुगंधोंसे सुगन्धितहैशरीर जिसका और कुण्डलादि श्राभूषणों से शोभायमान सो उसने उसही समयमें महामुनि देखे कैसे हैं मुनि अम्बर कहिये आकाश सोई है अंबर कहिये वस्त्र जिनके तपही है धन जिनका और ध्यान स्वाध्याय श्रादि जे क्रिया उनमें उद्यमी सो यह दमयंत महा देदीप्यमान क्रीड़ा करते जे अपने मित्र तिनको छोड़ मुनियोंकी मण्डलीमें गया बन्दनाकर । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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