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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण १३०३० रूप अग्निकर जलगयाहै हृदय जिसका भयकर सासूको कर्वी उत्तर न दिया सखीके और धरे हैं नेत्र जिसने मनकर अपने अशुभ कर्मको बारंबार निन्दती अश्रुधारा नाखती निश्चल नहीं है चित्त जिस का क्रूर इनको लेचला वह क्रूर कर्म में अति प्रवीणहै दिवसके अंतमें महेंद्रनगरके समीप पहुंचायकर नमस्कार कर मधुर बचन कहता भया हे देवी में अपनी स्वामिनी की आज्ञासे तुमको दुखका कारण कार्य किया सो क्षमा करो ऐसा कहकर सखीसहित सुन्दरी को गाडी से उतार बिदा होय गाडी लेय स्वामिनी पैजायकर बिनती करी कि आपकी आज्ञा प्रमाण तिनको वहां पहुंचाय आया हूं। अथानंतर महापतिव्रता जो अंजनी सुन्दरी उसे दुखके भारसे पीडितदेख सूर्यभी मानो चिन्ताकर मंद होय गई हैप्रभा जिसकी अस्त होगया और रुदनकर अत्यन्त लाल हो गएहैं नेत्र जिसके ऐसीअंजनी सो मानों इसके नेत्रकी अरुणताकर पश्चिम दिशा रक्त होगई अन्कार फैल गया रात्रि भई अंजनी के दुःख से निकसे जो आंसू वेई भए मेघ तिन कर मानों दशों दिशा श्याम होय गई और पंछी कोलाहल शब्द करतेभये सो मानो अञ्जनी के दुःखसे दुःखीभए पुकारें हैं वह अञ्जनी अपवादरूप महा दुःखका जो सागर उसमें डूबी क्षुधादिक दुख भूलगई अत्यन्त भयभीत अश्रुपात नाखे रुदनकरे सो बसंतमालासी धीर्य बंधावे रात्रीको पल्लवका साथरा बिछाय दिया सो इसको निद्रा रंचभी न आई निरन्तर उष्ण अश्रुपात पड़ें सो मानो दाहके भय निद्रा भागगई बसंतमालाने पांव दावे खेद दूरकिया दिलासो करी दुःखके योगकर एक रात्री वर्ष वरावर बीती प्रभातमें साथरेको तजकर शंका कर अति विठ्ठल पिता के घर की ओर चली सखी छाया समान संग चली पिता के मन्दिर के द्वार जाय पहची For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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