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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण ॥२२॥ पश्न | जाने है तुझे क्या कहूं परन्तु यह मेरी दुःख अवस्था मुझ वाचाल कर है ह सब तुन बिना यह बात कौनसे कही जाय तु समस्त जगतकी रीतिको जाने है जैसे किसान अपनो दुःख राजासे कहे और शिष्य गुरुसे कहे और स्त्री पतिसों कहै और रोगी वैद्यसों कहे बालक माता सों कहें सो दुःख से छूटे तैसे बुद्धि मान अपने मित्रसे कहैं इसलिये मैं तुझे कहूंहूं वह राजा महेन्द्र की पुत्री उसके श्रवणही कर कामवाण कर मेरी विकल दशाभई है सो उसके देखे विना में तीनदिन निवाहिवे समर्थ नहीं इसलिये कोई ऐसा यत्न कर जो में उसे देख उसे देखेविना मेरे स्थिरता न आवे और मेरी स्थिरतासे तुझे प्रसन्नता होय प्राणियों को सर्वकार्य से जीतव्य वल्लभ है क्योंकि जीतव्य के होतेहुए प्रात्मलाभ होय है इसभान्ति पवनञ्जय ने कही तब प्रहस्त मित्र हँसे मानों मित्रके मनका अभिप्राय पायकर कार्य सिद्ध का उपाय करते भये हे मित्र बहुत कहनेकर क्या अपनेमांहि भेद नहीं जो करनाहो उसमें ढीलमतकरो इसभांति उनदोनोंके वचनालाप होयह इतनेमेसर्य मानोंइनके उपकारनिमित्त प्रस्तभया तबसूर्यके वियोगसे दिशाकाली पड़गई अंधकार फैलगया क्षणमात्रमें नीलवस्त्र पहिरे निशा प्रकटभई तब रात्रिके समयोत्साह सहित मित्र को पवनंजय कहते भए । हेमित्र उठो श्रावो वहांचलें जहां वह मनकी हरणहारी प्राणवल्लभातिष्ठे है, तवये दोनोमित्रविमान में बैठप्रकाशके मार्ग चले मानों अाकाशरूप समुद्रके मच्छही हैं क्षणमात्रमें जाय अंजनीके सत खणे महल पर चढ़ झरोपों में मोतियों की झालरोके आश्रय छिपकर बैठे, अञ्जनी सुन्दरीको पवनंजय कुमार ने देखा कि पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान है मुख जिसका मुखकी ज्योतिसे दीपक मंद ज्योति होय रहे हैं और श्याम श्वेत अरुण त्रिविध रंग को लिये नेत्र महा सुन्दर हैं मानों काम के वाण ही हैं और कुच ऊंचेमहा। For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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