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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir पुराण ॥२८॥ तो उसके स्त्री बहुत हैं और आयु अधिक है और जो उसके पुत्रोंमेंदें तो उनमें परस्पर विरोध होय और हेमपुरका राजा कनकधुति उसका पुत्र सौदामिनीप्रभ कहिये विद्युतप्रभ सो थोड़ेही दिनमें मुक्तिको प्राप्त || होयगा यह वार्ता सर्व पृथिवीपर प्रसिद्ध है ज्ञानी मुनोंने कहा है हमनेभी अपने मन्त्रियोंके मुखसे सुना है अब हमारे यह निश्चय भया है कि आपका पुत्र पवनंजय कन्या के बरिने योग्य है यही मनोरथकर हम यहां पाए हैं सो आपके दर्शनकर अति आनन्दभया जिससे कछु विकल्प मिया तब प्रल्हाद बोले मेरे भी चिंता पुत्रके परणावनकी है इसलिये मेंभी आपका दर्शनकर और वचन सुन वचनसे अगोचर सुखको प्राप्तभया जो आप आज्ञाकरो सोही प्रमाण मेरे पुत्रको बड़ा भाग्य जो आपने कृपा करी बर कन्याका विवाह मानसरोवरके तटपर ठहरा दोनों सेनामें श्रानन्दके शब्दभए ज्योतिषियोंने तीनदिनका लग्न थापा ___अथानन्तर पवनंजयकुमार अंजनी के रूपकी अद्भुतता सुनकर तत्काल देखनेको उद्यमी भया तीन दिन रह न सका संगमकी अभिलाषाकर यह कुमार कामके वशहुवा वेगोंकर पूरितभया प्रथमवेग विषयकी चिंतासे व्याकुलभयाऔर दूजेवेग देखनेकी अभिलाषा उपजी तीजे वेगदीर्घउच्छ्वास नाखनेलगा चौथे वेग कामज्वर उपजा मानो चन्दनके अग्नि लगी पांचवेंवेगअङ्ग खेदरूपभया सुगंध पुष्पादिसे अरुचि उपजी छठे वेग भोजन विषसमान बुरा लगा सातवें बेग उसकी कथा की आसक्तता कर विलोप उपजा आठवें बेग उन्मत्त हुवा विभ्रमरूप सर्प कर डसा गीत नृत्यादि अनेक चेष्टा करनेलगा नवमें वेग महामूर्छा उपजी दसवें वेग दुःख के भारसे पीड़ितभया यद्यपि यह पवनञ्जय विवेकीथा तथादि अञ्जनी के प्रभावकर विहल | भया हे श्रेणिक कामको धिकरहो कैसा है काम मोक्षमार्गका विरोधी है कामके बेगकर पवनञ्जय धीरज | For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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