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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म ॥१॥ समोसरण में इन्द्र भगवान् की ऐसे स्तुति करते भये । हे नाथ ! महामोहरूपी निद्रा में सोता यह जगत् तुमने ज्ञानरूप सूर्य के उदय से जगाया । हे सर्वज्ञ वीतराग ! तुमको नमस्कार हो, तुम परमात्मा पुरुषोत्तम ही संसार समुद्र के पार तिष्ठो हो, तुम बडे सार्थवाही हो, भव्य जीव चेतन रूपी धन के ब्यापारी तुमारे संग निर्वाण द्वीप को जायेंगे तो मार्ग में दोषरूपी चोरों से नाहीं लूटेंगे, तुमने मोक्षाभिलापियों को निर्मल मोक्ष का पन्थ दिखाया और ध्यान रूपी अग्नि कर कर्म रूपी ईंधन | को भस्म कियेहैं । जिनके कोई बांधव नहीं, नाथ दुःख रूपी अग्नि के ताप कर सन्तापित जगत् के प्राणी तिन के तुम भाई हो और नाथ हो, परम प्रताप रूप प्रगट भये हो, हम तुमारे गुण कैसे वर्णन कर सकें। तमारे गुण उपमा रहित अनन्तहैं, सो केवल ज्ञान गोचरहैं इस भांति इन्द्र भगवान् की स्तुति कर अष्टांग नमस्कार करते भये समोशरण की विभूति देख बहुत श्राश्चर्य को प्राप्त भये । ___ वह समोशरण नाना वर्णके अनेक महारत्न और स्वर्णसे रचा हुवा जिसमें प्रथमही स्त्र की धूलि का धूलि साल कोट है और उसके ऊपर तीन कोट हैं एक एक कोट के चार चार द्वार हैं द्वारे २ अष्ट मङ्गल द्रव्य हैं और जहां रमणीक वापी हैं सरोवर अद्भुत शोभा धरे हैं तहां स्फटिक मणि की भी (दिवार ) से बारह कोठे प्रदक्षिण रूप बने, एक कोठे में मुनिराज हैं दूसरे में कल्पवासी देवों की देवांगना में तीसरे में आर्यिका हैं चौथे में जोतिषी देवोंकी देवीहें पांचवें में ब्यन्तर देवीहें छठेमें भवन वासिनी देवी हैं, सातवें में जोतिषी देव हैं, आठवें में व्यन्तर देवहैं, नवमेंमेंभवनवासी, दरावें में कल्प वासी, ग्यारवें में मनुष्य, बारमें तियच ॥ सर्व जीव परस्पर बैरभाव रहित तिष्ठ हैं । भगवान् अशोक For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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