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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म www.kobatirth.org लोग करे हैं अपमान जिसका वचनरूप बसोलोंकर छीला है चित्त जिसका अनेक फोड़ा फुनसी की पुराधरणहारी ऐसी नारी होय हैं और जे नारी शीलवन्ती शान्त है चित्त जिनका दयावन्ती रात्रि भोजन का त्याग करे हैं वे स्वर्ग में मन फांछित भोग पावे हैं उनकी आज्ञा अनेक देव देवी सिरपर धारे हैं हाथ जोड़ सिर निवाय सेवा करे हैं स्वर्गमें मन बांछित भोग कर और महा लक्ष्मीवान ऊंचकुलमें जन्मपावे हैं शुभ लक्षण संपूरण सब गुण मण्डित सर्वकला प्रवीण देखनहारों के मन और नेत्रोंकी हर हारी अमृत समान वचन बोलें श्रानन्दकी उपजावनहारी जिनके परिणवेकी अभिलाषा चक्रवर्त्त बलदेव बासुदेव तथा विद्याधरोंके अधिपति राखें विजुरी समान है कांति जिनकी कमल समान है बदन जिनका सुन्दर कुंडल आदि आभूषणकी घरणहारी सुन्दर वस्त्रोंकी पहरनेवाली नरेन्द्रकी राणी दिन भोजनसे होय हैं जिन के मन बांधित अन्न न होयहैं और अनेक सेवक नाना प्रकारकी सेवा करें जे दयावन्ती रात्रिमें भोजन न करें वे श्रीकांता सुप्रभा सुभद्रा लक्ष्मी तुल्य होवें इसलिये नर अथवा नारी नियमविषे है चित्त जिनका निशिभोजनका त्याग करें यह रात्रिभोजन अनेक कष्टका देनहारा है रात्री भोजनके त्यागमें अति अल्प कष्ट है परन्तु इसके फलसे सुख अति उत्कृष्ट होय है इसलिये विबेकी यह व्रत आदरें अपने कल्याण को कौन न बांबे धर्म तो सुखकी उत्पत्ति का मूल है और अधर्म दुखका मूल है ऐसा जानकर धर्मको भजो अधर्मको तजो यह वार्ता लोकमें समस्त बालगोपाल जाने हैं कि धर्म से सुख होय है और अधर्म से दुःखहोय है धर्मका महात्म्य देखो जिससे देवलोकके चए उत्तममनुष्य होय हैं जलस्थल के उपजे जे रत्न तिनके स्वामी और जगतकी मायासे उदास परंतु कैएक दिनतक महाविभूति के धनी होय गृहवास भोगे ॥२७०॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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