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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥२६॥ | महा मणि को चूर्ण करे तैसे यह जड़बुद्धि विषेके अर्थ धर्मरत्न को चूर्ण करे है और ज्ञानी जीवोंको, सदा द्वादश अनुप्रेक्षाका चिन्तवन करणा कि ये शरीरादि सर्व अनित्यहै श्रात्मा नित्यहै इस संसार में । कोई शरणनहीं आपको श्रापही शरणहै तथा पंच परमेष्ठी का शरणहैं और संसार महा दुख रूप है चतुरगतिविषे किसीठौर सुख नहीं एक सुखका धाम सिद्धपदहै यह जीव सदा अकेलाहै इसका कोई संगी नहीं और सर्व द्रव्य जुदे २ हैं कोई किसी से मिले नहीं और यह शरीर महाअशुचि है मल मूत्र का भरा भाजन हैात्मा निर्मल है और मिस्थात्व अव्रत कषाययोग प्रमादों कर कर्म का आश्रबहोय है और व्रत सुमति गुप्ति दस लक्षण धर्म अनुप्रेक्षा चिन्तवन परीपहजय चारित्र से संबर होय हैाश्रव कारोकना सो संबर और तप कर पूर्वोपार्जित कर्म की निर्जग होयहै और यह लोक षटद्रव्यात्मक अनादि अकृतिम शास्वत है लोक के शिखर में सिद्धिलोक है लोकालोक का ज्ञायकात्मा है और जो आत्मस्वभाव सोही धर्म है जीवदयाधर्म है और जगत विषे शुद्धोपयोग दुर्लभहै सोई निर्वाणका कारण है येद्वादश अनुप्रेक्षा विवेकी सदाचिंतवे इसभांत मुनि और श्रावकके धर्म कहे अपनीशक्तिप्रमाण जोधर्म सेवे उत्कृष्ट मध्यमतथा जघन्य सोसुरलोकादिविषेतैसाहीफल पावें इसभांति केवली ने जब कही तब भानुकर्ण कहिये कुम्भकर्ण ने केवली से पूछा हेनाथ भेदसहित नियम का स्वरूप जानना चाहूं हूं तब भगवान ने कही हेकुम्भकर्ण नियम में औरतपमें भेद नहीं नियम करयुक्त जो प्राणी सो तपस्वी कहिये । इसलिये बुद्धिमान नियम विषे सर्वथायत्न करे जेताअधिक नियम करे सोही भला और जो बहुत न | | बने तो अल्पही नियम करना परन्तुनियम बिना न रहना जैसे बने सुकृतका उपार्जन करना, जैसे मेघ । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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